अयोध्या की रचना किसने और कब की? किस राजा, किस इंजीनियर ने बनवाया और कब? निर्माण किस धर्म से जुड़ा है?

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आजकल अयोध्या की चर्चा सुर्खियों में है, क्योंकि वहां पर श्रीरामजी का भव्य मंदिर बन रहा है। पर इस अयोध्या के असली इतिहास से आज भी 99 फीसदी लोग अनभिज्ञ हैं। यह वही अयोध्या है, जहां से हर युग में सभी 24 तीर्थंकरों का जन्म होता है, पर इस बार हुण्डा अवसर्पिणी काल के कारण केवल 5 तीर्थंकरों का जन्म हुआ।
प्रश्न उठता है कि इस अयोध्या नगरी को किस राजा, किस इंजीनियर ने बनवाया और कब? इस अयोध्या नगरी का निर्माण किस धर्म से जुड़ा है? इस प्रमाण के लिये हम सन्दर्भ लेते हैं ‘श्री आदिपुराण’ का जिसको आचार्य श्री जिनसेन (द्वितीय) ने नवीं सदी में रचा। उसी से उद्धृत करते हुए इस अयोध्या के इतिहास को दोहराते हैं।

यह बात है पंचम नहीं, तीसरे काल की, जब प्रथम तीर्थंकर के पिता, महाराज श्री नाभिराय जी का महारानी मरुदेवी से विवाह हो चुका था, तब धीरे-धीरे कल्पवृक्षों का अभाव होने लगा, तब तक यह धरा कर्मभूमि नहीं, भोगभूमि थी। यानि सबकुछ भोग-उपभोग की सामाग्री कल्पवृक्षों से मांग ली जाती और मिल भी जाती। तब महाराज नाभिराज – महारानी मरुदेवी के पुण्य के द्वारा बार-बार बुलाये हुए इन्द्र द्वारा एक नगरी की रचना की। इन्द्र की आज्ञा से शीघ्र ही अनेक उत्साही देवों ने बड़े आनंद के साथ स्वर्गपुरी के समान उस नगरी की रचना की। उन देवों ने वह नगरी विशेष रूप से अति सुंदर बनाई थी, जिससे जान पड़ता, मानो इस मध्यम लोक की धरा पर स्वर्गलोक का प्रतिबिम्ब रख दिया हो। इन्द्र सोच रहा था, हमारा स्वर्ग बहुत ही छोटा है, क्योंकि वह त्रिदशावास है अर्थात् सिर्फ तीस व्यक्तियों के रहने योग्य स्थान है, इसलिये उन्होंने सैकड़ों – हजारों के रहने योग्य नगरी की रचना की। तब लोग इधर-उधर बिखरे रूप में रहते थे। देवों ने लाकर उन सबको इस ‘अयोध्या’ में बसाया। नगरी के मध्य में देवों ने राजमहल बनाया, जो इन्द्रपुरी से मानो सुंदरता में स्पर्धा करता था। और क्यों ना हो, क्योंकि इसको निर्माण करने वाले स्वर्ग के देव जो थे।
देवों ने इस अयोध्या को वप्र (धूलि के बने छोटे कोट), प्राकार (चार मुख्य दरवाजों से सहित, पत्थर के मजबूत कोट) और परिखा से सुशोभित किया। अयोध्या नाम ही नहीं, गुणों के अनुरूप थी, कोई भी शत्रु इससे युद्ध नहीं कर सकता था, इसलिये यह नाम सार्थक था।
इसका एक नाम साकेत (स+आकेता = घरों से सहित) भी था, यह पताकायें फहराते अच्छे-अच्छे मकानों से प्रशंसनीय थी। यह नगरी सुकौशल देश में थी, इसलिये इसका नाम ‘सुकौशला’ भी पड़ा। यहां विनीत-शिक्षित पढ़े-लिखे सभ्य पुरुष भी रहते थे, इसीलिये विनीता भी कहलाई गई। राजभवन, वप्र, कोट, खाई सहित यह अयोध्या ऐसी लगती, मानो कर्मभूमि में आगे होने वाले नगरों की रचना के लिए एक नक्शा देवों ने उकेर दिया हो, यानि सब नगरों में पहली नगरी बसी अयोध्या।
सभी देवों ने मिलकर शुभ दिन, शुभ मुहुर्त, शुभ योग और शुभ लग्न में हर्षित होकर पुण्याहवचन किया। फिर महाराज-महारानी इसके महल में रहने लगे, तब इन्द्र ने दोनों की बड़ी पूजा की क्योंकि 6 माह बाद ही स्वर्ग से आयु पूर्ण कर प्रथम तीर्थंकर का जीव मरुदेवी माता के गर्भ में आयेगा। और उसी दिन से इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने सुबह-दोपहर – शाम 3.5-3.5 करोड़ रत्नों की वर्षा प्रारंभ कर दी, जो 15 माह चली, इसमें सारे अयोध्या वासी आर्थिक रूप से सम्पन्न हो गये।
(स्रोत श्री आदिपुराण, 12वीं पर्व की गाथा 68 से 65)