गिरिडीह (मधुबन)11.08.2021: सम्मेद शिखर जी मधुबन के 13 पंथी कोठी में बुधवार को दोपहर सवा बारह बजे जैन मुनि श्री विश्वयश सागर जी महाराज ने समाधि ले ली।
यहां जीवन की अंतिम साधना संथारा जिसे सल्लेखना भी कहते हैं। पिछले नौ दिनों से उन्होंने जल तक त्याग दिया था। आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज समेत करीब 30 दिगंबर साधु इसी तेरह पंथी कोठी में चातुर्मास कर रहे हैं। दर्जन भर साधु सल्लेखना कर रहे विश्वयश सागर जी महाराज की दिन रात सेवा कर रहे थे। कभी भी उन्हें अकेला नहीं छोड़ा जा रहा था। श्रद्धालु भी उनका दर्शन कर खुद को धन्य महसूस कर रहे थे। विश्वयश सागर जी महाराज आचार्य श्री विराग सागर जी महाराज के शिष्य थे।
उनके साथ करीब तीन साल पूर्व वह मधुबन पहुंचे थे। तब से वह यहीं थे। उन्होंने सम्मेद शिखरजी में ही सल्लेखना करने का निर्णय लिया था। सम्मेद शिखरजी मधुबन के 13 पंथी कोठी के पीछे उनके पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार कर दिया गया। संन्यास लेने के पूर्व विश्वयशजी महाराज का नाम प्रेमचंद आजाद जैन था। उनका जन्म पांच जनवरी 1940 को हुआ था। उनके पिता का नाम वीरनलाल जैन था। वह मूलत: मध्य प्रदेश के जबलपुर के रहने वाले थे।
आप गृहस्थ जीवन में आचार्य श्री विद्या सागर जी महाराज के अनन्य शिष्य मुनि श्री शाश्र्वत सागर जी महाराज के अग्रज, मुनि श्री विश्व दृष्टा सागर जी महाराज के समधी, तथा हनुमानताल जबलपुर निवासी श्री पुष्पेन्द्र जैन जी के पिताश्री, एवं श्रीमति साधना जैन जी के ससुर थे ।
अन्न – जल का त्याग कर लिया जाता है सल्लेखना : दिगंबर जैन साधु के पैरों पर खड़े होकर खाने व पीने की ताकत रहती है, तभी तक भोजन करते हैं और पानी पीते हैं। साधु बनते वक्त ही संकल्प लेते हैं कि जब तक पैरों पर खड़े होने की ताकत रहेगी, तभी तक वह भोजन व जल ग्रहण करेंगे। अधिक उम्र होने के कारण जिस दिन से पैरों पर खड़ा होने की ताकत खत्म हो जाती है। जीवन का अंत नजदीक नजर आने लगता है, उसी दिन से अन्न व जल त्याग देते हैं। इसे साधु अपने जीवन की अंतिम साधना करते हैं, जिसे सल्लेखना या संथारा कहते हैं। सल्लेखना का समापन साधु के शरीर त्यागने से होता है। समाधि के पश्चात विमान यात्रा (अंतिम यात्रा) निकालकर पारंपरिक तरीके से अग्नि संस्कार का कार्यक्रम सम्पन्न की जाती है।
@प्रवीण जैन (पटना)