वे मूढ़ हैं, जो कार्य करते नहीं और चिन्ता प्रारम्भ कर देते हैं , इसलिए विफल होते हैं । यदि चिंता करने से कार्य की सिद्धि होती , तो विश्व के सभी पुरुष चिन्ता करना प्रारम्भ कर देते और कार्यानुसार पुरुषार्थ करना बंद कर देते ।
चिन्ता से कार्य की सिद्धि नहीं होती है, अपितु सम्यक् – पुरुषार्थ से कार्य की सिद्धि होती है ।
मित्र ! घर जाना और भूख लगे तो रोटी नहीं खाना , मात्र बैठे रहना और रोटी की चिन्ता करना कि रोटी बन गई , पक गई , मिल गई , पेट भर गया । क्या रोटी देखने पर तेरा पेट भर जायेगा ? क्या रोटी की चिन्ता से तेरा पेट भर जायेगा ? क्या रोटी को पुनः – पुनः चिन्ता करने से पेट भर जायेगा , स्वाद आ जायगा ? नहीं
विश्व के किसी भी कार्य को बार – बार दोहराने से कार्य की सिद्धि नहीं होगी । कार्य की सिद्धि तो दैव और पुरुषार्थ पूर्वक ही हो पायेगी
चिन्ता से सिद्धि सम्भव नहीं है । खुश रहना खुश रखना , जीना और जिलाना । चिन्ता – मुक्त रहो प्राणियो , यही भावना भाना ।
;:- आचार्य रत्न विशुद्ध सागर जी महाराज