08 अक्टूबर 2021, शिखरजी, आचार्य विशुद्धसागर जी महाराज ने अपने प्रवचनों में कहा कि इच्छा के अनुकूल अवश्य है , खोटे कार्यों में ले जा रहा है , इसलिए शत्रु है । पाप का फल दुर्गति है । जो पाप में लगाए वह मित्र कैसे हो सकता है ? वह तो शत्रु ही है ।
सत्यार्थ मित्रता का बोध तब होता है जब पतन के मार्ग से बचाकर धर्म के मार्ग पर मित्र रख दे |
मदिरालय के स्थान पर जिनालय ले जाए , कुशास्त्रों के स्थान पर सद् शास्त्र की ओर ले जाए , उन्मार्ग से सदमार्ग की ओर ले जाए ।
मित्र जल – पूरित मेघ के तुल्य होता है , जैसे बादल सूखी भूमि को अपनी वर्षा से आर्द्र कर फसल से हरा – भरा कर देते हैं उसी प्रकार सच्चा मित्र सद् – गुणों से रिक्त मित्र को भी अपने सद् – गुणों से परिपूर्ण कर देता है ।
जीवन में मित्रता समान गुणी जनों से करनी चाहिए अथवा स्व से अधिक गुण वालों से करनी चाहिए । हीन गुणी से कभी मित्रता नहीं करनी चाहिए , यदि जीवन में दुःखों से मुक्ति चाहते हैं तो ।
हीनाचारी की मित्रता पल – पल में कष्टप्रद होगी