परम पूज्य अध्यात्म योगी आचार्य श्री 108 विशुद्ध सागर जी महाराज के मंगल प्रवचन झारखंड की पवित्र पावन भूमि श्री शाश्वत तीर्थराज सम्मेद शिखर जी तेरापंथी कोठी से
भो ज्ञानी !!!बिखरे हृदय को जोड़ दे उसका नाम साधु है जुड़े हुए हृदयों को तोड़ दे उसका नाम साधु तो नहीं हो सकता है।। संप्रदाय भले ही हो सकता है।।
भो ज्ञानी !! कषायों का निरोध करना ही तपस्या है।।(क्रोध मान माया लोभ) सारी कषायों का त्याग करना ही तपस्या है।।
भो ज्ञानी !!! जो व्यवस्था लेकर चलते है उनकी व्यवस्था क्या बनाना जो व्यवस्थित जीवन जिये उनकी व्यवस्था जरूर बनाना।।
भो ज्ञानी !! एक जीव जब हम वैशाली में थे, पटना का था वह, मुझे नहीं जानता था और न मैं उसे जानता था, वह मुझ से आकर बोलता है कि स्वामी मुझसे मासोपासी आचार्य सन्मति सागर जी ने कहा था कि तुम उनकी सेवा करोगे, इसलिए महराज मैं आज आपकी सेवा करने आया हूँ, जबकि मैं भी सन्मति सागर जी।महराज जी से थोड़े समय के लिए ही मिला था, मित्र !!जब मेरी व्यवस्था बड़े बड़े आचार्य बना गये तो अपने को क्या चिंता जो व्यवस्थित जीवन जीते है, उनकी व्यवस्था स्वमेव बन जाती है।।
।।भो ज्ञानी !!! मेरा उद्देश्य किसी को दुःखी करना नहीं है मेरा उद्देश्य तुम्हारे दुःख दूर करना है।।
जैसे कोई जीव बंदर को जब केले खिलाता है तो वह आवाज देता है , तो पूरे बंदर अपने आ जाते है, मित्र !!मनुष्य की प्यार की आवाज तो पशु भी सुनना जानते है, ऐसे ही है हे श्रमणों !!तुम वात्सल्य की भाषा दो, श्रावकों को श्रावक अपने आप आपके पास दौड़े चले आयेंगे।।
इस विद्या को घर से ही सीखना पड़ेगा।।
भाई भाई के बीच वात्सल्य रहना चाहिए जब घर में ही वात्सल्य नहीं है तो फिर मित्र कैसे।
बाहर साधु बनकर उपदेश दे पाओगे।।*