शास्वत तीर्थ क्षेत्र श्री सम्मेदशिखर जी से 24मार्च2021 प्रातः 9:30 से
चर्याशिरोमनी आचार्य विशुद्धसागर जी महाराज की पावन पीयूष देशना
श्री कुंदकुंद आचार्य जी ने प्रवचनसार जी की गाथा नम्बर 80 में लिखा है
जो जानदि अरिहंतम दव्वत्त गुनत्त पज्जयतेहिं
सो जानदि अप्पाणं मोहो खलु ज़ादी तस्स लयं
जो अरिहंत परमात्मा को द्रव्य गुण पर्याय से जानता है वह अपनी आत्मा को जानता है।
अरिहंत भगवान को आगम से समझना ये परोक्ष प्रमाण से समझना हुआ प्रत्यक्ष तो आत्मानुभूति से जानेगा।
जीव 12वे गुणस्थान तक भी अरिहंत देव को नही जानता है।
कैवल्यज्ञान के साथ व्याप्य व्यापक भाव से ही अरिहंत की प्रगट अनुभूति की जा सकेगी।
ध्यान के साथ आप सिर्फ पदस्थ पिण्डस्थ रूपस्थ रूपातीत के साथ जान सकते हो।
पूर्व से देख लिया करो जिससे अपूर्व आनंद आए।
जानन क्रिया द्वैत रूप है इसे एक रूप देखता है यही विपर्यास है।
आत्मा का ज्ञान इन्द्रिय ज्ञान नही है अतीन्द्रिय ज्ञान है।
लाल को जन्म देने का आनंद तो माँ को ही है, नर्स को तो फीस का आनंद है।
विकल्प प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय नही है।
कठिन नही सुनोगे तो सरल आएगा ही नहीं।
बछड़े की माँ मायाचारी नही करती . ऐसे ही जिनवाणी मां ने शुद्ध आगम दिया है कोई मिलावट नही की है।
भगवान की अनुभूति तो भगवान को ही होती है।
प्रगट पर्याय का आनंद भिन्न है अप्रगट पर्याय का ध्यान भिन्न है।
सुना हुआ भूला जा सकता है, सीखा हुआ नही भूला जा सकता।
सीखने वाले को तो मस्तिष्क लगाना पड़ता है सुनने वाले को सिर्फ कान लगाने पड़ते हैं।
जहां तत्वज्ञान की पिपासा न हो वहां तत्वज्ञान परोसकर अवहेलना मत करना।
-नंदन जैन