सान्ध्य महालक्ष्मी
21सवीं सदी के दूरदृष्टा अध्यात्मयोगी एवं चर्या शिरोमणी 108 आचार्यश्री विशुद्धसागरजी महाराज वर्तमान में श्रमण संस्कृति के सुविख्यात आध्यात्मिक संत हैं और आज अपने जीवन के 50 वर्ष पूर्ण कर 51वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। आप अंतिम तीर्थंकर एवं वर्तमान शासन नायक भागवान महावीर स्वामी की परम्परा में हुए आचार्य आदिसागर अंकलीकर आचार्य महावीरकीर्तिजी, आचार्य विमल सागरजी एवं आचार्य सन्मति सागरजी महाराज की निर्ग्रन्थ वीतरागी जैन श्रमण परम्परा के प्रतिनिधि गणाचार्य विरागसागरजी महाराज से दीक्षित उनके बहुचर्चित श्रमण शिष्य हैं और अपनी आगम अनुकूल चर्या एवं ज्ञान से नमोस्तु शासन को जयवंत कर रहे हैं।
17 वर्ष की अल्पायु में गृहत्याग
18 दिसंबर 1971 को म.प्र. के भिंड जिले के ग्राम रूर में आपका जन्म हुआ। पूर्व संस्कारवश आपको बाल्यकाल में ही आध्यात्मिक रूचि जागृत हुई और मात्र 17 वर्ष की अल्पायु में आपने जीवन पर्यंत के लिये गृह त्याग कर आचार्य विरागसागरजी के करकमलों से 11 अक्टूबर 1989 को क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की, पश्चात 19 जून 1991 को हीरों की नगरी पन्ना में ऐलक दीक्षा एवं 21 नवंबर 1991 को जैनेश्वरी मुनि दीक्षा को प्राप्त किया, तदोपरांत गणाचार्य विरागसागरजी महाराज द्वारा आपको 31 मार्च 2007 महावीर जयंति के दिन औरंगाबाद महाराष्ट्र में आचार्य पद प्रदान किया गया।
आचार्य श्री विशुद्धसागरजी वर्तमान काल में अपने ज्ञान अपनी विशुद्ध चर्या और आगम सम्मत पियूष वर्षणीय विशुद्ध वाणी हैं। आपके अलोकिक व्यक्तित्व में जहां गुरु गोविंद दोनों के दर्शन होते हैं। वहीं आपके दीक्षा गुरु गणाचार्य विरागसागरजी की छवि भी दिखाई देती है। आपका वात्सल्य और आपकी सरलता सहजता भी ऐसी है कि जो भी आपके सान्निध्य में एक बार आता है, वह उन्हीं का होकर रह जाता है। तप-त्याग, ज्ञान और आपकी निर्दोष चर्या और चारित्र हैं।
शिथिलाचार का कोई स्थान नहीं, सिर्फ आगम झलकता है
इस पंचमकाल में अनेक जैन मुनि आचार्य एवं उनके संघ साधनारत हैं और हर संघ की अपनी चर्या है, लेकिन वर्तमान में उनकी चर्या एवं कृतित्व में 20वीं सदी का प्रभाव भी घुसपैठ करता दिखाई देता है, लेकिन आचार्य विशुद्ध सागरजी एवं उनके द्वारा दीक्षित 45 मुनियों का संघ इसका अपवाद है। उनकी चर्या में सिर्फ और सिर्फ आगम की झलक दिखाई देती है और शिथिलाचार का कोई स्थान नहीं है। देश में कहीं भी उनके नाम से कोई प्रोजक्ट भी नहीं है, इसलिये वे न धन संग्रह (चंदा) इकट्ठा करते हैं न करवाते।
यही वजह है कि उनकी चर्या श्रावकों के लिये आदर्श एवं श्रमणों के लिये अनुकरणीय बन गई है। ‘आत्मा स्वभाव परभाव मिन्नम’ – इस आध्यात्मिक सूत्र पर जीवन जीने वाले आचार्य विशुद्धसागरजी का एकमात्र लक्ष्य आत्म कल्याण एवं दैनंदिनी कार्यक्रम ज्ञान, ध्यान, लेखन, प्रवचन और अध्ययन करना व संघस्थ मुनियों एवं ब्रह्मचारियों को अध्ययन कराना है।
जन सामान्य को ज्ञानी कहने और प्रत्येक जीव आत्मा को भगवान मानने वाले तीर्थंकर सम उपकारी आचार्य विशुद्ध सागरजी उत्कृष्ट योपम (श्रेष्ठ ज्ञान) धारी और विषयों से विरक्त तपस्वी एवं गहन चिंतक और दार्शनिक भी हैं। साल भर चलने वाली आपकी आडम्बरहीन निर्दोष चर्या में धर्म, दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप का विराट संगम आलोकित होता है। आपके चिंतन, प्रवचन एवं लेखन में भी जहां साक्षात सरस्वती उतरती दिखाई देती है, वहीं हर एक वाक्य में विशुद्ध आगम व अध्यात्म झलकता है और आध्यात्मी आचार्य कुंद कुंद एवं महान दार्शनिक जैनाचार्य श्री समन्तभद्र के समान अनुगूंज में कल्याण का संकल्प भी प्रकट होता है।
73 हजार किमी से अधिक का पग विहार
आचार्यश्री का जितना विशद व्यक्तित्व है, उससे अधिक उनका कृतीत्व भी है। देश के दस राज्यों 73 हजार किमी से अधिक पग विहार कर आपके सान्निध्य में शतक पंच कल्याणक प्रतिष्ठाओं का सम्पन्न होना आपकी अरिहंत भक्ति का अभिज्ञान कराती है। आपके द्वारा शताधिक प्रवचन साहित्य के अलावा माध्य, अनुशीलन, स्वतंत्र चिंतन कथा साहित्य एवं 5000 आध्यात्मिक कविताएँ आदि विभिन्न प्रकार का पठनीय साहित्य सृजित है, जिसका देश-विदेश में लाखों स्वाध्यात्म प्रेमियों के द्वारा स्वाध्याय किया जाता है।
आप वह दीप शिखा जिससे अध्यात्म के रत्नों से जीवन संवारने की रोशनी मिलती है
लाखों लोगों को व्यसन एवं मांसाहार का त्याग कराने वाले आचार्यश्री अहिंसा के सदप्रचारक एवं टूटती आस्थाओं को जोड़ने वाले महायोगी हैं। आपके नाम के पूर्व अध्यात्म योगी का जो विशेषण अंकित किया जाता है, वह न केवल सार्थक है, वरन आपके व्यक्तित्व की वह दीप शिखा है, जिससे ढंग का जीवन जीने और अध्यात्म के रत्नों से अपने जीवन को संवारने की रोशनी मिलती है।
– डॉ. जैनेन्द्र जैन, दिगम्बर जैन समाज इन्दौर