श्रीमती ,वज्रजंघ की पर्याय में निर्ग्रन्थों को दान दे रहे थे और एक बन्दर देख रहा था , सिंह , सूअर और नेवला भी देख रहे थे और सोच रहे थे , यदि मैं भी श्रावक होता , तो निर्ग्रन्थों के हाथ पर एक ग्रास रख देता ।
इन भविष्य के भगवन्तों को एक ग्रास दे देता, तो मेरा भी कल्याण हो जाता । ज्ञानियो! एक भव्यजीव अनुमोदना मात्र से तीर्थंकर होता है ।
वज्रजंघ का जीव, तो वही शेर भरत चक्रवर्ती होता है । ये भी ध्रुवसत्य है, कि अपन लोगों ने कहीं – न – कहीं किसी तीर्थंकर के पादमूल में जिनवाणी की अनुमोदना अवश्य की होगी, इसलिये जिनवाणी सुनने को मिली ।
भले ही कोई ऐसा कार्य किया होगा जो कि पंचमकाल में आना पड़ गया । ऐसे खोटे काल में क्षण – क्षण में मृत्यु, कितना कष्ट, तनाव । शारीरिक कष्ट कम है, पर मानसिक तनाव बहुत ज्यादा है
समूह में जिनवाणी वे ही सुन पाते हैं, जो समूह में पुण्य का बन्ध कर पाते हैं ।
अरे दादा! भूल गये क्या? बारिस में गिजाइयाँ नहीं देखी क्या, समूह रूप में? हजारों गिजाइयाँ एक साथ गाय के पैर के नीचे नष्ट हो गई । ये वो ही पापीजीव हैं, जो समूह में खोटे काम किये थे और कुछ लोगों ने तालियाँ बजाई थी । बेचारे एकसाथ मर गये ।
भैया! ‘कार्य लिंग ही कारणं’
कार्य दिख रहा है , तो कारण की खोज करो । शीघ्र किसी से प्रभावित मत होना ।
भैया ! मटका खरीदने जाते हो आप बाजार में , वो भी ठोक – ठोक कर खरीदते हो । उसमें भरना क्या है ? पानी । जब पानी भरनेवाली वस्तु को ठोक – ठोक कर लेता है , तो जिस हृदय में जिनवाणी भरी जा रही हो , उस हृदय को कितना पवित्र होना चाहिए ?
:आचार्य रत्न विशुद्ध सागर जी महाराज