पूर्व में पुण्य किये बिना निर्ग्रन्थ मुनि बन नहीं सकता और बिना पुण्य किये निर्दोष संयम का पालन कर नहीं सकता: आचार्य रत्न विशुद्ध सागर जी

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गुरु की सेवा – भक्ति , गुरु की प्रशंसा करते हुये कोटि – कोटि शिष्य मिल जायेंगे , पर गुरु जैसा बनने की क्षमता शिष्यों में नहीं आ पाती है । क्यों ? पुण्य चाहिये ।
ज्ञानी ! पूर्व में पुण्य किये बिना निर्ग्रन्थ मुनि बन नहीं सकता और बिना पुण्य किये निर्दोष संयम का पालन कर नहीं सकता
‘ कार्यलिंग हि कारणम् । ”
ये इन्द्र बने दिख रहे हैं , ये वर्तमान के इन्द्र नहीं हैं । ये कार्य है । इनने पूर्व में ऐसे शुभ काम किये थे , जो संस्कार आज पंचम काल में भी आकर टकरा गये कि तुम इन्द्र बनकर भगवान् की पूजा करो ।
बेटा ! पैसा तो सबके घर में है , पर खर्च वही करता है जो पूर्व पुण्य का धारी होता है । ये ब्रह्मचारी बैठे हैं , इनके भी तो भैया लोग हैं , कि नहीं ? एक माँ के बेटे होने पर भी , बेचारे , देखो पाँव पड़ते हैं वे सब ।
भैया ! कबहूँ – कबहूँ शर्म लगन लगत , जब बूढ़े – वाड़े पाँय परत । जब मै क्षुल्लक बनकर आया और मेरी उम्र रही 17 साल की । 80 साल के बूढ़े वैयावृत्ति करने आ गए । मैंने कहा – दादा ! तुम बच्चे की वैयावृत्ति कर रहे हो ? शर्म लगती थी बहुत ज्यादा । पर क्या करें ?
धन्य हो जैनदर्शन । आठ वर्ष के बालक के साठ वर्ष का पैर पड़त है
:- आचार्य रत्न विशुद्ध सागर जी महाराज