दूर दृष्टि वाले महान योद्धा आचार्य श्री विराग सागरजी ॰ पुन: युग प्रतिक्रमण को जीवंत किया ॰ आचार्य पद जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन

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॰ जन्म से समाधि तक, अनुभव बचपन से दीक्षा के
10 जुलाई 2024// आषाढ़ शुक्ल चतुर्थी //चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/शरद जैन /

यह वर्ष 2024 ‘वि’ से काफी उतार-चढ़ाव दिखा रहा है, ‘वि’ से विक्टरी यानि वर्ल्ड कप टी-20 में भारत की जीत, इसी भरत चक्रवर्ती के भारत में एक अल्पसंख्यक समाज के लिये ‘वि’ से विरोध लेकर आया, तीर्थों पर कब्जे, हड़पने और न दर्शन करने के लिये।

अद्भुत संयोग
यही नहीं विलाप भी करना पड़ा। दो ‘वि’, आध्यात्मिक क्षितिज के ध्रुव सितारे, दो पर्वों पर चल दिये पहले। ‘वि’ सबके प्रात: स्मरणीय आचार्य श्री विद्यासागर अष्टमी को, अंग्रेजी तिथि से 18 फरवरी को, उस शून्यता से अभी तक समाज सम्हल भी नहीं पाया। हां, विवाद करते रहे, खींचतान शुरू हुई (कई ने देखा सागर में) उसी बीच एक और ‘वि’ चतुर्दशी को, 04 जुलाई को चल दिया, गणाचार्य श्री विराग सागरजी के रूप में। आयुकर्म का भी हिसाब बड़ा अनोखा था, सूर्योदय से पहले सूर्यास्त से शुरूआत की। ब्रह्म मुहुर्त में विदाई। पहले छोटी सुई ‘2’ पर और बड़ी सुई ‘6’ से एक कदम आगे बढ़ कर सात तक पहुंची थी, यानि 2:35, और इस बार छोटी सुई वहीं थी, पर बड़ी सुई 6 से एक कदम पहले 2:25 पर। हां, पहले दक्षिण का सूर्य उत्तर में अस्त हुआ और इस बार उत्तर का सूर्य दक्षिण में। हां, इस बार अगले दिन तो रुआंसे चांद ने क्षितिज पर चेहरा दिखाने से भी इंकार कर दिया, बन गया अगला दिन अमावस का। अंक गणित भी अनोखा रहा, जरा देखिये –
आचार्य श्री विद्यासागरजी समाधि :
18-02-2024 = 1+8+0+2+2+0+2+4 = 19
आचार्य श्री विराग सागरजी समाधि :
04-07-2024 = 0+4+0+7+2+0+2+4 = 19

‘वि’यानि विराग सागरजी। यह ‘वि’उनके साथ अद्भुत रूप से जुड़ा है, दुनिया में एक अनोखा संयोग पूरे आध्यात्मिक क्षितिज पर कौतुहल पैदा करता है यानि वि – विराग सागर जी के गुरु भी ‘वि’यानि विमल सागरजी और शिष्य भी सारे ‘वि’ से और उनसे उनके पट्टाचार्य विशुद्ध सागरजी की अगुवाई में सभी संत। यह एक अद्भुत कीर्तिमान है, कि किसी का स्वयं, उनके गुरु और सभी शिष्यों के नाम में प्रथम अक्षर समान हो। और यह तब, जब शिष्य 8-10 नहीं, बल्कि 9 आचार्य, 94 मुनि, 4 गणिनी आर्यिका, 73 आर्यिका, 5 ऐलक, 23 क्षुल्लक और 32 क्षुल्लिका दीक्षायें दी हों। अनेक सिद्ध, अतिशय, तीर्थ-मंदिरों, जिनालयों की मरम्मत, जीर्णोद्धार- नवीनीकरण और पथरिया में विरागोदय जैसे अद्भुत तीर्थ की प्रेरणा। हजारों किमी की पदयात्रा और 44 वर्ष के संयम काल में 3 करोड़ 80 लाख जाप।
हां, उनके 44 वर्षायोगों में सबसे ज्यादा 7 भिण्ड में हुए, वहीं भिण्ड जहां से हजारों अजैनों को जैन बनने की भावनाओं को प्रेरित किया। याद है उनमें से एक हैं रविन्द्र प्रताप यादव जो शिखरजी से उनके पद विहार में साथ-साथ चले भिण्ड तक। यह यादव पुत्र जैनी न हो जाये, तो परिजनों ने उसे कुएं में भी धक्का दे दिया, आग के साथ भी धमकाया, पर वह गुरुवर की चर्या, पर इतना गदगद था कि हर दीवार ढह गई, वह भी आज 1500 को जैन धारा में जोड़ चुके हैं, ऐसे एक नहीं अनेक हैं। वो स्वयं ही मोक्ष मार्ग की ओर नहीं बढ़े, बल्कि 350 के लगभग को इस ओर प्रेरित कर चलाना शुरू कर दिया।
निकट के अतीत में संभवत: वे ही एकमात्र गुरु थे, जिन्होंने इस मृत्युलोक को छोड़ने से पहले विधिवत बड़े संघ को उपसंघों में बांट कर, जिम्मेदारी सौंपी और शायद यही एकमात्र जिन्होंने उपसंघों में एकल विहार पर 2023 में पूरी तरह विराम लगाया।

उस दिन फरवरी 2023 को घोषणा से पहले स्टेज की ओर बढ़ते हुए विहार में सान्ध्य महालक्ष्मी से कहा था – शरद, आज मैं एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी का निर्वहन करने जा रहा हूं, जिससे भविष्य में वो एक पथ प्रदर्शक बन जाये। उस समय हम अनुबूझ पहेली, की तरह उनके चेहरे को देखते रहे। उस दिन तक, उनके संघ में भी कुछ एकल विहारी संत थे, पर उसी दिन आचार्य श्री ने कई सुयोग्य को उपाध्याय भी बनाया, विहर्ष सागरजी को आचार्य। कोई संघ एकल विहार नहीं, गदगद हुआ मन, तब मंच पर कुर्सी पर बैठे हमने खड़े होकर उनका तीन बार नमन किया और कुछ ताली बजाई, जिसको फिर धर्मसभा ने दोहराया। आज जो शिथिलता अतिचार जैसे शब्द सुने जाते हैं, उन पर एक हद तक विराम के लिये।

युग प्रतिक्रमण की सफल शुरूआत
सान्ध्य महालक्ष्मी से चर्चा में प्राचीन काल में हो रहे युग प्रतिक्रमण षटखंडागम के लेखन पर जैसे ही बात आई। गुरुवर ने तुरंत कहा – सभी समस्याओं- शंकाओं का समाधान होता था इसमें, इसीलिये हमने भी 2012 फिर 2017 और अब यहां 2023 में रखा है, अगली बार अन्य संघों के साधुओं को भी जोड़ेंगे, घोषणा दो वर्ष पहले ही कर देंगे। (अब इनके इस कार्य को आगे किसी को करना होगा)।
उस दिन गुरुवर से सान्ध्य महालक्ष्मी ने एक घंटे धर्मचर्चा की। शुरूआत पथरिया तीर्थ निर्माण से। सान्ध्य महालक्ष्मी ने स्पष्ट कहा कि गुरुवर आज हमारे तीर्थों पर लगातार कब्जों की शिकायतें आ रही हैं, इनकी क्या लाइफ होगी, 50-100 साल, जबकि कहते हैं निर्माण की मजबूती इतनी कि हजार साल लाइफ हो। तब उन्होंने मुस्कराकर कहा – इस बात को हमने भी समझा, पहला यहां 400 जैन परिवार हैं और यह केवल धर्मनाथजी का तीर्थ नहीं होगा, बल्कि साथ में विद्यालय और औषधालय भी बनाया जाएगा, जब तक आप वहां के स्थानीय समाज से कल्याणकारी योजनाओं के रूप में नहीं जुड़ोगे, वह खतरा तो कम गिनती वालों (जैन) पर रह सकता है।

4 साल की उम्र में बोले – मुझे पड़गाहो
02 मई, 1963 को दमोह के पथरिया में श्रेष्ठी श्री कपूर चंद जी एवं माता श्यामा देवी के घर जन्मे अरविंद जैन ने 5 क्लास तक पथरिया विद्यालय में पढ़ने के बाद, 1974 में कटनी के श्री शांति सागर निकेतन संस्कृत विद्यालय में 6 वर्ष तक धार्मिक शिक्षण प्राप्त कर 11वीं तक की लौकिक शिक्षा तथा शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की। धर्मचर्चा के बीच में उत्सुकता से हमने गुरुवर से पूछ ही लिया – ये संन्यासी बनने के बीज कहां से पड़े गुरुवर?

तब पहले हल्के से खिलखिलाये, फिर बोले – कब से, शायद परिवार के धार्मिक संस्कारों से। हमें महापुरुषों की कहानियां सुनने का शौक था। बुआजी के पास जाते और वे फट से कोई सुना देती। हां, तब में चार साल का था, तब एक दिन बुआ ने मुनिराज की कहानी सुनाई, कैसे वो आहार करते। बस उनकी कहानी सुनकर मेरे मन में क्या आया कि रसोई से लोटा उठाया और बाहर पड़ी छोटी झांडू, दोनों एक हाथ में पकड़ी और दूसरा हाथ मुट्ठी बनाकर कंधे पर और मां से बोला – मुझे पड़गाहो, तभी खाना खाऊंगा। मां हंसी, चल हट, ये क्या करता है। पर मेरे ऊपर तो फितूर था, मैंने कहा – नहीं मां, पड़गाहो, वरना मैं बाहर चला जाऊंगा। यह देख मां थोड़ी चौंकी, और उसी तरह पड़गाहने लगी और खाना दिया। तब मां चिंतित हो गई थी कि कही यह संन्यास ना ले ले। वह नहीं चाहती थी। रोज-रोज पड़ोसी दम्पत्तियों के झगड़े देख-सुनकर वैसै ही बाल्यावस्था से वैवाहिक बंधन में फंसने का विचार था। ऐसे में तपस्वी सम्राट श्री सन्मति सागरजी का एक दिन का विहार कराने गये, वह विहार आत्म कल्याणक का रूप ले बैठा और फिर वापस घर नहीं लौटे। न केवल 16 साल में मैंने क्षुल्लक दीक्षा ली, बल्कि 20 साल में मुनि दीक्षा भी ले ली। और संयोग देखिये माता को आर्यिका विशांतमति और पिता को क्षुल्लक विश्व विद्य सागर के बाद मुनि दीक्षा के साथ समाधिमरण हुआ।

क्षुल्लक रूप में समाधिमरण की बात
20 फरवरी 1980 को क्षुल्लक दीक्षा हो गई। जैन सिद्धांतों के अध्ययन हेतु कारजालाड (महाराष्ट्र) गये। वहां आपको तपेदिक रोग हो गया। वहां परेशान, डॉक्टरों, विद्वानों औरअन्य श्रेष्ठी जनों ने अंग्रेजी दवा लेने का कहा, क्योंकि वैसे उपचार से सुधार नहीं दिख रहा था। तब आपने चन्द्रप्रभु के चरणों में प्रतिज्ञा की, कि अगर स्वस्थ हो गया तो मुनि दीक्षा लूंगा वर्ना समाधिमरण करूंगा, कुछ दिनों में आप ठीक हो गये।

जब पाटे सहित उठाया आपको
08 नवंबर 1992 का दिन था, द्रोणगिरि तीर्थ पर आचार्य श्री विमल सागरजी के आदेश पर सौ से ज्यादा विद्वानों और 20 हजार से ज्यादा लोगों के बीच आपको आचार्य पद दिया गया। आपकी ना-नुकुर में, आपको जबर्दस्ती पाटे सहित उठाकर आचार्य पद के सिंहासन पर विराजमान किया गया, आपकी निस्पृहता का सटीक उदाहरण।

दीक्षा के बाद शुरू परीक्षा, सिर मंडाते ओले पड़े पर…
इस दिगम्बर भेष में उपसर्ग और परीषह तो खूब आते होंगे, इसकी शुरूआत कब हुई, इस पर वे दो क्षण रुके और फिर बोले – हमारी दीक्षा 1983 की ठंडी में हुई ( 09 दिसम्बर को) फिर पहला चातुर्मास भोजपुर, काफी भक्ति थी, लोगों में, पर शायद हमारे कर्मों की परीक्षा थी। आहार में एक दिन बाल आ गया, दूसरे दिन एक मरा जीव रास्ते में, यह अंतराय का क्रम दो दिन नहीं, लगातार दस दिन चला। लोग घबरा गये। हमने कहा – इससे आप क्यों परेशान होते हो, हमें कर्मों की निर्जरा का अवसर मिल रहा है। हमने बीच में टोक दिया – गुरुवर एक युवा पहला चौमासा, अंदर ही अंदर परेशान हुए होंगे, तकलीफ हुई होंगी। वे बोले -अरे नहीं, दीक्षा के साथ ही सब विकल्प खत्म। तब सारे लोग पहुंचे गुरुजी के पास। हां, वे जरूर थोड़ा हमारे कारण चिंतित हुये। उन्होंने सेब फल लिया, मंत्रित किया, संघ संचालिका चित्राबाई को लेकर भेजा और ग्याहवें दिन मेरे निरन्तराय आहार हुआ। बस उसके बाद तो उपसर्ग और परिषह को कभी महसूस ही नहीं किया, क्योंकि ये दीक्षा जीवन का अभिन्न अंग है।

दिल का दौरा अस्पताल बस 1 किमी, पर नहीं गये
ऐसे ही अब 02 जुलाई को शाम, विहार जालना में डेढ़ किमी ही चले थे कि अचानक वे बैठ गये और फिर छाती में दर्द, पेट में दर्द और लगातार दो उल्टी हो गई। आंखों के सामने अंधेरा। पता चला यह दिल का दौरा पड़ा था। तुरंत डॉक्टर आये, उन्होंने बताया कि एक किमी पर अस्पताल है, वहां ले चलो, तुरंत इमरजेंसी जरूरत है, वरना अनहोनी हो सकती है। पर गुरुवर टस से मस नहीं हुए, अडिग रहे, कुछ भी हो, पर इलाज के लिए स्पष्ट मना कर दिया। देशभर से संतों के, विद्वानों के संदेश भी आये, पर वे तैयार नहीं हुए, चाहे मौत सामने खड़ी थी। तब उन्होेंने मुनि पुंगव सुधा सागरजी से सम्पर्क करवाया, वे विहार में थे। तब अगले दिन तीसरी बार में चर्चा हुई, संबोधन दिया। बीती रात भी उल्टी हो चुकी थी। चिंता बढ़ गई थी, पर सुबह अभिषेक देखने के बाद कुछ ग्रास का आहार हुआ।

36 घंटे पहले उनको पूर्वाभास और आचार्यों के लिये बना दिया पथ
03 जुलाई को दोपहर को तीन बजे संघ के सारे बैठे थे, तब उन्होंने अरुण भैयाजी को बुलाने को कहा। वो आये, तो पूरे संघ के संतों को बाहर जाने को कह दिया। शिष्य चले पर क्यों, समझ नहीं पाये। दरवाजा बंद नहीं करवाया, गुरुवर ने भैयाजी को कहा एक वीडियो बनाना है, उन्होंने बोला और रिकॉर्ड कर लिया। देर शाम को तबियत फिर बिगड़ी, उल्टियां होने लगी। उन्होंने संकेत दे दिया, अब बस। चारों प्रकार के आहार का त्याग और भेद-विज्ञान, सब शरीर में हो रहा है, इसका क्या, बस सिद्ध भक्ति-चिंतवन में ही थे संभवत:, वे लेटे थे, पर निंद्रा नहीं थी और फिर श्वास ने 2:25 पर अपना क्रम भी रोक दिया।

अंतिम 48 घंटे – ऐसा होता ही है, देखा भी जाता है जब स्वास्थ्य खराब होता है, तब किसी को मिलने नहीं दिया जाता, कपाट बंद हो जाते हैं। पर गुरुवर द्वारा अंतिम दोनों दिन, पूरे समय दरवाजे खुले रहे, पूरी पारदर्शिता रही, कोई कमरा बंद नहीं, कोई इलाज छिपाकर नहीं, समाज के सामने सब शीशे के समान।

राज वीडियो का
क्या था वीडियो रिकार्डिंग में, संकेत संघ को मिल गये सुबह 04 जुलाई को, निर्णय हुआ कि बाद की सभा में उसे सार्वजनिक रूप से सुना जाएगा। गुरुवर समझ गये थे कि अब श्वास ज्यादा लंबी नहीं, चंद घंटे और, फिर मेरे बाद संघ में विवाद ना हो, व्यवस्थायें तो पिछले साल पथरिया में ही कर दी थी, पर अब पट्टाचार्य / नेतृत्व सौंपने की भी घोषणा कर दूं। इतने दूर दृष्टि। पिछले कुछ दशक में यह किसी भी बड़े संघ में एक अभूतपूर्व दूरदर्शिता देखने को मिली। यानि कोई कन्फ्यूजन नहीं, कोई विवाद को स्थान नहीं।

देश भर में विनियांजलियों का क्रम
05 तारीख से लगातार गुणानुवाद-विनयांजलि सभायें मंदिर-मंदिर, कमेटी-संस्थानों की शुरू हो गई। सब जगह उनके जीवन पर प्रकाश डाल रहे थे, उनकी चर्या, बचपन, दीक्षा जीवन, संघ के नेतृत्व, उपलब्धि आदि के बारे में बताते गये। शिष्यों ने अपने-अपने अनुभव साझा किये, गुरु के उपकारों को सराहा, पर क्या यही विनयांजलि होनी चाहिए?

सान्ध्य महालक्ष्मी – सच्ची विनयांजलि क्या?
एक बड़े संघ का उत्तम रूप से नेतृत्व करते हुए, अंत समय तक श्रेष्ठतम चर्या का पालन करते हुए, आगमानुसार संघ का कार्यान्वयन, शास्त्रों का लेखन ही नहीं, आचारण भी, ऐसे गुरुवर के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि वही होगी, जब हम उनके बताये मार्ग पर दो कदम बढ़ाये। अचल के साथ चल तीर्थों की सुरक्षा-संरक्षण के लिये हम सजग रहे, तैयार रहे। संतों के आहार-विहार-निहार में सदा अपना योगदान दें। एक जैन नहीं, श्रावक के रूप में अपना जीवन बदले। अगर हमने अपने अचल तीर्थों पर कब्जे, तोड़फोड़ को रोकने में योगदान किया, संतों को बांटने – संतवाद – पंथवाद में दीवार बने, उनकी सुरक्षा में ढाल बने, समाज को एक करें, दूसरों को जैनत्व के प्रति प्रोत्साहित करें, यही गुरुवर के प्रति सच्ची विनयांजलि होगी। और संतों के लिये एक शुरूआत को आगे बढ़ाना, हर पांच वर्ष में युग प्रतिक्रमण कराना।

इसकी पूरी जानकारी यू-ट्यूब चैनल महालक्ष्मी के एपिसोड नं. 2708-2710 में देख सकते है।