इरादा हमेशा जीव रक्षा का और प्रत्येक कार्य विवेक पूर्वक जीवो पर दया करुणा के भाव से करना : मुनिश्री विलोकसागर

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केसली जैन मंदिर में विराजमान आचार्य श्री आर्जवसागर जी महाराज के परम शिष्य मुनि श्री विलोकसागर जी महाराज ने धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा कि जीवो की रक्षा की भावना जीव दया एवं अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है ।जीवाणं रख्खणं धम्मो अर्थात जीवो की रक्षा करना धर्म है ऐसा ऋषि-मुनियों ने कहा है। संत तुलसीदास जी ने भी कहा है
दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छांडिये जव तक घट में प्राण।।

धर्म की जड़ दया है करुणा है एवं पाप का मूल या जड़ अहंकार है । जिनके हृदय में जीवो के प्रति दया करुणा का भाव रहता है वही महान बनते हैं ।मुनि श्री ने आचार्य शांतिसागर जी महाराज के जीवन का प्रसंग सुनाते हुए बताया कि बचपन से ही उनके हृदय में जीवो के प्रति दया एवं प्राणी रक्षा के भाव थे ।बचपन में वे एक बार वे शौच के लिए बाहर गए थे जब वापस आए तो उनके हाथ में टूटे हुए लोटे को देखकर घर में पूछा गया कि यह लोटा कैसे टूटा। उन्होंने बताया कि एक सर्प एक मेंढक को खाने जा रहा था उस समय मेंढक की प्राण रक्षा के लिए मैंने तत्काल इस लोटे को पत्थर पर जोर से पटक दिया जिससे वह सर्प मेंढक को छोड़कर भाग गया लोटा तो टूट गया परंतु मेंढक के प्राणों की रक्षा हो गई ।

वे जब भी बचपन में खेत पर जाते थे तो पक्षी फसल को नुकसान पहुंचाते थे परंतु वे उन्हें भगाते नहीं थे बल्कि उनके लिए पीने को पानी और रख देते थे ।इस प्रकार बाल्यावस्था से ही उनका हृदय प्राणियों के प्रति दया की भावना से परिपूर्ण था इसीलिए वे आगे चलकर महान संत आचार्य बने जिनकी परंपरा में आचार्य विद्यासागर जी जैसे महान संत हुए हैं। कोई भी साधु संसार के दुखों से डरकर साधु नहीं बनता है अपितु मेरे द्वारा किसी को कष्ट न पहुंचे किसी प्राणी का घात ना हो इस भावना से साधु बनता है।

जीवो के प्रति दया करुणा का भाव हमारे चित्त में हमेशा रहना चाहिए इसके लिए हमें प्रत्येक कार्य सावधानी एवं विवेक पूर्वक करना चाहिए ।उठते बैठते चलते खाते पीते सोते आदि समय सावधानी और विवेक पूर्वक अपना कार्य करना चाहिए जिससे कि किसी जीव का घात ना हो जाए। यदि जीव हिंसा का भाव नहीं है और जीवो की रक्षा की भावना है फिर भी यदि किसी जीव का घात हो जाता है तो भी हिंसा का पाप नहीं लगता है ।किंतु किसी जीव को मारने का संकल्प है और वह जीव बच जाता है तो भी हिंसा का पाप लगेगा ।जैसे डॉक्टर ऑपरेशन मरीज को ठीक करने उसकी प्राण रक्षा के उद्देश्य करता है परंतु यदि मरीज मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो भी डॉक्टर हिंसा के पाप का दोषी नहीं होगा।

परंतु किसी शिकारी ने पक्षी को मारने के लिए तीर चलाया है परंतु पक्षी बच गया तो भी शिकारी हिंसा के पाप का दोषी माना जाएगा ।अतः हमारा इरादा हमेशा जीव रक्षा का होना चाहिए प्रत्येक कार्य सावधानी से विवेक पूर्वक जीवो पर दया करुणा के भाव से ही करना चाहिए। पानी छानकर पीना रात्रि में भोजन नहीं करना शुद्ध सात्विक शाकाहारी भोजन करना किसी भी वस्तु को देख परख कर उठाना रखना आदि समस्त नियम एवं क्रियाओं का उद्देश्य जीव दया एवं अहिंसा धर्म का पालन हैl

सव्वाओ रिद्धिओ, पत्ता सव्वे वि सयण संबंधा |
संसारे ता विरमसु, तत्तो जइ मुणसि अप्पाणं ||२५||

संसार में सभी प्रकार की ऋद्धियाँ और स्वजन सम्बन्ध प्राप्त किये है, अतः यदि तू आत्मा को जानता है, तो उनके प्रति रहे ममत्व से विराम पा जा ।
एक सुखद जीवन के लिएमस्तिष्क में सत्यता
होठों पर प्रसन्नता
और हृदय में पवित्रता जरूरी है l
थकान लगे बिना विश्राम भी अच्छा नहीं लगता है।
अच्छाई मात्र बताने योग्य ही नहीं अपनाने योग्य भी है।

यदि आप उठ नही रहे तो आप गिर ही रहे है
जीने के लिए भोजन नही तत्व चिंतन की जरूरत है।
आराधना अर्थात आनंद से आत्मिक जीवन जीना।
उदारता ही समृद्धता की निशानी है।
भगवान से सुख मांगा नही जाता सीखा जाता है।
होनी ही होती है अन्य कुछ नहीं होता।
मोह की नींद खुलती नहीं, खोलनी पड़ती है।
मोहि की पूरी जिंदगी दूसरों को राजी करने में ही निकल जाती है।
क्रोध मूर्खता से शुरु होता है*,
और पश्चात्ताप पर पूर्ण होता है l

परिचय” एवंम् “पहचान”दोनों ही भिन्न है…!!!!
क्योंकि …
परिचय” में आवरण है..
और ..
“पहचान” में व्यक्तित्व की सुगंन्ध….
कहते है कि वक्त हर ज़ख्म को भर देता है,
किताबों पर धूल जमने से कहानी बदल नहीं जाती
जहां धर्म है वहा हिंसा नही है जहां हिंसा है वहाँ धर्म नही है
विनय मिथ्यात्म ओर विनय मोक्ष का द्वार

माँ की बात स्वीकार, पर जिनवाणी माँ पर क्यों नहीं?
खबर रखने वाले की ही खवर नहीं, धन्य ज्ञानी
जो देखता है, वह दिखता नहीं, ध
प्रेम जब अनंत हो गया, रोम रोम संत हो गया
हिमालय की ऊचाई, आकाश सी विशालता, समुद्र सी गंभीरता,ऐसे हम है

छोटे बड़े की भावना ही, मान का आधार
त्रिकालीक को छोड़, पर्याय को छोटा बड़ा माना l
वस्तु स्वरूप विचार खुशी से, सब दुख संकट सहा करे l
जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी.. l
प्रतिशोध की भावना भी अनन्तनुबँधी कषाय हैl
जीव पर करुणा करना ही जीव (मेरा) का वास्तविक धर्म है l
मुंह पर कड़वा ‌बोल‍ने वाले लोग ‍‍,कभी धोखा नहीं देते।
डरना तो मीठा बोलने वाले से चाहिए।
जो दिल में नफरत पालते हैं।
और वक्त के साथ बदल जाते हैं।

शीशा कमजोर बहुत होता है।
मगर सच दिखाने से घबराता नहीं है
मौन है वार्तालाप की सुंदर कला,
वही जाने जो है शांति में ढला।
कंचन के समान मूल्यवान ” मौन ”
सकारात्मक सोच का अर्थ यह नहीं है कि आप प्रत्येक समय सर्वोत्तम की अपेक्षा करें वरन् यह स्वीकारना है कि जो कुछ भी होता है वह उस समय के लिये सर्वोत्तम ही है।

“काल कैसा है विकट, यह सोचकर मन रो रहा,आज इस संसार मे, चहुं ओर ये क्या हो रहा! आत्मा ही मर चुकी, इंसान कैसे जी रहा! खा रहा है जीव को और खून उसका पी रहा। भूल जाता कर्म के, सिध्दांत को ये आदमी, जो करेगा एक दिन वह ही भरेगा आदमी । आज भी संभला नहीं तो, ये समय फिर जायेगा, फिर संभलने के लिए मौका नहीं रह पायेगा।
पंडिताई माथे पड़ी, पूर्व जन्म के पाप l
पर उपदेश देते रहे, कोरे रह गए आप ll

कम पानी, अल्प ज्ञानी, दलदल उत्पन्न करता है
आत्मा स्वभावं पर भाव भिन्नम्, पर भाव भिन्नम् आत्मा स्वभावं ll