आत्म चिंतन का समय है। एक दूसरे की गलती देखने का समय नहीं है। हम इंसान है और गलतियां होना स्वभाव है। साथ ही, विज्ञान और धर्म में तुलनात्मक अध्ययन करने का नही है। अभी जो समय है, मिलकर काम करने का है। हम जिस देश में रहते हैं, वहां की संस्कृति और संस्कारों पर चिंतन मनन व आत्मसाधना करने का है। भारतीय संस्कृति का इतिहास है, जीवन में व्यक्तिगत हो या सामूहिक, रोग, शोक, दुख व पाप कर्म बहुलता से आता है और यह बहु सत्य है कि बड़े-बड़े रोग का इलाज ध्यान, योग और आत्मचिंतन से हुआ है।
साथ ही, यह भी भारतीय संस्कृति का इतिहास है कि विज्ञान और धर्म से जीवन में सुख, शांति और समृद्धि आती है। भारतीय संस्कृति के अनुसार, परिस्थितियों को देखकर काम करना, खोज करना और वस्तु का उपयोग करना विज्ञान है। परंपराओं को निभाना और विश्वास करना धर्म है। जैसे पहले हम बैलगाड़ी, पैदल और भावों को निर्मल पवित्र कर धर्मयात्रा करते थे। समय बदला, तो आज हम बस, हवाई जहाज से निर्मल भाव से धर्मयात्रा करते हैं, तो इसमें निर्मल भाव से धर्मयात्रा करना धर्म है और अब जो यात्रा बस, हवाई जहाज आदि से कर रहे हैं, यह विज्ञान है।
तो इसमें जो बदला, वह यात्रा का साधन बदला, भाव और उद्देश्य नहीं। तो सीधा से मतलब है कि विज्ञान समय के अनुसार बदलता है और धर्म शाश्वत है। विज्ञान के अनुसार, धर्म का काम करने वाला ही सफलता को प्राप्त करता है। मात्र विज्ञान-विज्ञान करने वाला और मात्र धर्म धर्म करने वाला जीवन में सफलता को प्राप्त नहीं हो सकता। कोरोना महामारी से लड़ने के लिए विज्ञान और धर्म को साथ लेकर काम करने की आवश्यकता है। तभी हम कोरोना से लड़ सकते हैं ।
चलो एक सच्ची घटना से समझते हैं जीवन के सच को..
पद्मपुराण में एक कथा आती है कि भरत के समय में आयोध्या में एक भैंसा बीमारी से तड़प रहा था। बिना प्रयोजन उसे नगर वाले पीड़ा, कष्ट, दुख दे रहे थे, मार रहे थे। इसी बीच उसकी आयु पूर्ण हो गई और वह मरकर वायुकुमार जाति का देव हुआ। उसने अपने कष्ट का बदला लेने के भाव से वायु में ऐसे कण छोड़े, जिससे अयोध्या राज्य में रोग फैल गया। जिसकी किसी भी वैद्य के पास कोई दवाई नहीं थी, एक संत ने कहा कि इस रोग को विशल्या नाम की कन्या के स्नान किए हुए जल या उसके स्पर्श किए हुए जल के स्पर्श से ठीक किया जा सकता है। जो उस जल का स्पर्श करेगा उसका रोग दूर हो जाएगा। हुआ भी ऐसा ही ।
अभी भी कुछ ऐसा ही समय आ गया है कि कोरोना भी वायु में फैल रहा है या स्पर्श से पता नहीं। कोई निर्णय नहीं हो पा रहा। दिनों-दिन नई-नई बातें सामने आने लगी हैं और उससे बचने के उपाय भी बदल रहे हैं और उसका लाभ भी मिल रहा है, यह विज्ञान है। लगभग 15 महीने हो गए हैं, पर आज तक इस रोग के बारे में निर्णय नहीं हो पाया और नहीं कोई इलाज निकल पाया है। विज्ञान के बिना धर्म और धर्म के बिना विज्ञान अधूरा है। कोरोना महामारी की विज्ञान के आधार पर बहुत चर्चा हो रही है। बस जो अधूरा है, वह है धर्म की चर्चा।
आज जरूरी है कि प्राचीन शास्त्र, महापुरुषों की बात पर विचार किया जाए। धर्म के आधार पर कब से कहा जा रहा है कि प्रकृति का ध्यान रखो, नहीं तो रोग, शोक, दुख बढ़ेंगे और आज विज्ञान भी यही कह रहा कि वायु, पेड़, पौधे को संभालो, पृथ्वी को कैमिकल से दूषित मत करो। इतना सब जानने के बाद हम किसका इंतजार कर रहे हैं…। सरकार, प्रसासन, धर्मगुरु, सम्मानीय जनता, मीडिया मिलकर विज्ञान और धर्म के साथ मिलकर इस कोरोना महामारी से लड़ने की बात को स्वीकार करें। तो क्यों नहीं हम विज्ञान के अनुसार, धर्म की आराधना करें।
क्यों नहीं, सरकार, प्रसासन, धर्मगुरु, सम्मानीय जनता, मीडिया और कोरोना से पीड़ित आदि मिलकर विज्ञान और धर्म को साथ मिलकर इस कोरोना महामारी से लड़ने की बात को स्वीकार करें और एक सामूहिक प्रार्थना और पूजन का आयोजन करें। समय एक हो, एक जगह से मार्गदर्शन हो कि क्या प्रार्थना और क्या पूजन होना है और जो जहां पर है, वहीं से प्रार्थना करे। क्या लाखों लोगों की जान बचाने के लिए एक बार नहीं कर सकते प्रार्थना?
मन में यह मत सोचो कि सही होगा या नहीं, बल्कि यह विश्वास रखो कि सही होगा। जब वैक्सीन लगने के बाद भी कोरोना हो रहा है, तो क्या वैक्सीन काम नहीं कर रही है, ऐसा नहीं, बल्कि ऐसा सोचो कि वैक्सीन सही समय पर नहीं लगी।