23 फरवरी 2024/ माघ शुक्ल चतुर्दशी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी : आज उनकी समाधि सुनकर थोड़ा हृदय में दुख हुआ। जाना तो सभी को है शरीर छोड़कर, विशेषता यही है कि संयम पूर्वक संयमी जीवन में और महामंत्र का स्मरण करते हुए शरीर छूटे यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। विधिवत संलेखना करके अपने शरीर को छोड़ा नियम से, ऐसे महापुरुष स्वर्ग में देव पर्याय को प्राप्त करके और निश्चित ही सम्यक दर्शन आदि के प्रभाव से दो-चार भव में ही अपनी आत्मा को परमात्मा बनाएंगे। मुनि समय सागर महाराज जी को आचार्य पद घोषित किया गया है, आगे मोक्ष मार्ग प्रशस्त चलता रहे और सभी उनके द्वारा दीक्षित साधु वर्ग अपने लोग वात्सल्य और प्रेम चलता रहेगा।
आचार्य श्री प्रसन्न सागरजी: वीतराग साधना पथ के अविराम पथिक, पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह उज्ज्वल – धवल -प्रकाशमान आचार्य श्री विद्या सागरजी महामुनिराज ब्रह्माण्ड के देवता, विश्व हित चिन्तक, युग दृष्टा, सन्त शिरोमणि आचार्य ने रात्रि के तृतीय प्रहर में, देवत्व की राह में चले गये। सन्त शिरोमणि के जीवन में वाणी की प्रमाणिकता, साहित्य की सृजनात्मकता एवं प्रकृति की सरलता का त्रिवेणी संगम था। जो अपराजिता के शिखर थे, जिनकी वीतरागता प्रणम्य थी। जिनका जीवन मलयागिरी चन्दन की तरह खूशबुदार था। ना उन्हें जात-पात से प्रयोजन था, ना अपने पराये से परहेज था, ना देशी से राग, ना विद्वेषी से द्वेष था। आचार्य श्री का जीवन सर्व हितंकर था। आचार्य भगवन का जीवन वटवृक्ष के समान था। आपके उद्बोधन एवं परिचर्चा में महावीर का दर्शन होता था। आप वर्तमान के वर्धमान थे, आप सम्वेदनशीलता एवं डायनेमिक सन्त थे।
आपका जीवन पारदर्शी, पराक्रमी तथा जीवन और जगत दोनों को आलोकित करने वाला था। आपने दहलीज पर खड़ी उदीयमान पीढ़ी को दिशा दृष्टी, और प्रतिभा स्थली को, हथकरघा, पूणार्यु, गौशाला के माध्यम से, उस पीढ़ी की डगर में दोनों ओर मील के पत्थर कायम कर दिए। पिछले सैकड़ों हजारों वर्षों में कोई ऐसा प्रखर और विचारोत्तेजक ना था, ना है और ना होगा। मैं ऐसे सन्त की चरण वन्दना करके धन्य हुआ। उनके आशीर्वाद कृपा से ही मेरा उत्कृष्ट सिंह निष्क्रिडित व्रत निर्विघ्न सानन्द सम्पन्न हुआ। हम स्मृतिशेष आचार्य श्री के बताए सन्मार्ग पर निरन्तर बढ़ सकें।
आचार्य श्री सुनील सागरजी : अद्भुत संत थे, संत शिरोमणि थे, हम ऐसे कहते हैं – ज्ञान में ज्ञान सागर थे, वात्सल्य में विमल सागर थे, तप में सन्मति सागर थे, ऐसे अद्भुत आचार्य विद्यासागर थे। उन्होंने देश, समाज, धर्म के लिए जो कार्य किये हैं, जो आशीर्वाद, मार्ग दर्शन दिये हैं, वो अद्भुत हैं। आचार्य श्री की अपनी गरिमा व महिमा रही। 300 से ज्यादा उन्होंने दीक्षायें दीं, 1000 से ज्यादा उन्होंने ब्र. भैया व ब्रह्मचारिणी बनाई, प्रतिभास्थली जैसी शिक्षण संस्थाएं, अनेक जिनालय व तीर्थों का जीर्णोद्धार कराया। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर जन सामान्य जनता उनका आशीर्वाद पाते थे, बड़े संत महात्माओं से लेकर सामान्य भी सादर उनका आशीर्वाद पाते थे। आचार्य महाराज अध्यात्म – उदासीन दृष्टि वाले, जन-जन के उपकारी संत साधक थे। गांव के गऊ वंश के लिए गोशाला की दिशा में भी बड़ा कार्य किया और स्वदेशी खादी, हथकरघा जैसी चीजों पर भी फोकस किया। सारी चीजों का मार्गदर्शन करते हुए भी उन्होंने अन्तर्दृष्टि बनाये रखी, 55 साल से भी ज्यादा लंबी साधना करके उन्होंने श्रेष्ठतम उत्तम समाधिमरण प्राप्त किया। वो तपस्वी सम्राट आचार्य श्री सन्मति सागरजी महाराज के संबंध में कहते थे कि उनके जैसा तपस्वी दुर्लभ है, हमें भी उनका आशीर्वाद मिलता रहता था।
निर्यापक श्रमण श्री वीर सागरजी : ऐसा कोई युग पुरुष हजारों वर्षों में दिखने में नहीं आया, ऐसे युग पुरुष की दिशा जो हमें मिली है, वो पूरे संघ को मिली है। आप श्रावकों को मिली है। जैन, जैनत्व बंधु को मिली है। राजनेताओं को मिली है। ऐसी दिशा देने वाले महान साधक बड़े अद्भुत होते हैं, हम सबका इतना सौभाग्य है कि ऐसे अद्भुत साधक के वरदहस्त के नीचे हम सभी पल्लवित हुए, और आगे भी होते रहेंगे, लेकिन प्रत्यक्ष का जो अभाव है,उसे पूर्ण कोई कर नहीं सकता।
मुनि श्री उत्कृष्ट सागरजी (गृहस्थ भ्राता) : आचार्य श्री के श्वास-श्वास में ब्रह्म स्वरूप का दिव्य स्वर गूंजता रहता था, उनके पावन आंखों से हर क्षण प्रेम की बूंदें टपकती थी। वहीं उनके मुख चन्द्र से अमृत बरसता, ऐसे महान समाधिस्थ आचार्य श्री विद्यासागरजी को मेरा वंदनीय प्रणाम। अब कंठ मेरा इतना रुंध रहा है कि कुछ बोलने में असमर्थ हूं। हमारे कुटुम्ब में जन्म लेकर जितने जीवों के कल्याण किये, साथ-साथ पूरे कुटुम्ब को इसी मार्ग में लगाया। उन्होंने अपने और पहले नम्बर पर अपने कुटुम्ब के समय सागरजी को दीक्षा दे दी और अंत समय में मुझे दीक्षा देकर स्वर्ग प्रस्थान कर गये।
आचार्यश्री देवनंदी जी : आचार्य श्री ने तीर्थों का ही नहीं, बल्कि चल तीर्थों का भी निर्माण किया। 30 वर्षों से जिनधर्म की दिव्य देशना आपने सारे जगत में प्रसारित की, सूर्योदय के पहले ही आज यह जगमगाता सूर्य सूर्यस्त हो गया। मैंने बचपन में उनको बहुत आहार दिया व विहार किया। जब मैं 13-14 साल का था, तो अपने घर में बहुत पड़गाहन किये, घर में आहार दिये। आज ऐसे श्रमण रूपी सूर्यका अस्त होना, सारे जैन समाज के लिए ही नहीं भारतीय संस्कृति के लिए अपूर्णीय क्षति हुई है। समाधिस्थ आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज शीघ्र-अतिशीघ्र भावीकाल में सिद्धत्व को प्राप्त करके शाश्वत सुख का अनुभव करें एवं उनके संदेश, उपदेश जैन समाज में निरंतर धारा प्रवाह होते रहें।
आचार्य श्री गुणधरनंदी जी: दक्षिण का ध्रुव उत्तर में अस्त हो गया। एक सूर्य की तरह कांतिमान, तेजवान, प्रकाशवान एक महान युग पुरुष थे, जिनके पग दक्षिण से चलते हुए उत्तर की तरफ चलते हुए महाशक्तिशाली और प्रभावशाली व्यक्तित्व बना। जिन्होंने इस युग के अन्दर असम्भव कार्य सम्भव करके दिखाये, ऐसे महानतम, विद्या सागर महाराज का आज जैन समाज नहीं, अपितु पूरे देश को अपूर्णीय क्षति हुई है। जिनकी समाधि हम सबके लिए दुख और कष्ट और न झेलने वाला वज्रपात हुआ है। इस क्षति को हम सदियों तक भर नहीं पाएंगे।
आचार्य श्री सिद्धांत सागरजी : 8-10 साल का था, उस समय से उनके प्रति, उनके संघ के प्रति, आहार देना, सेवा करना, उनसे संस्कार प्राप्त करना, उनसे छोटे-छोटे नियम लेकर त्याग करके बड़ा हुआ। एक बार मैं गिर गया था, तो उन्होंने गोदी में लिटाकर कहा कि पवन तुम्हें महावीर बनना है। ऐसे थे महान आचार्य। जब उनका देवलोकगमन हुआ, तो अंतर्मन में वेदना हुई। उन्होंने शांतिसागरजी और आदिसागरजी की चर्या और परम्परा को विकसित किया। आज देश-विदेश में अगर दिगम्बर परम्परा का नाम लिया जाता है, तो आचार्य विद्यासागर जी का। जैसा आपने समाधिमरण किया, वैसा हमारा भी हो, ऐसी भावना भाता हूं।
आचार्य सुबल सागरजी : आचार्य विद्यासागर महाराज जी ने संयमी, व्रतियों को दीक्षाएं दीं। उन्हें बहुत सारे नियम संयम दिए, जो आज अपनी आत्मा का कल्याण कर रहे हैं। कई तीर्थों का उद्धार किया। समाज के उत्थान के लिए वह समय देते रहे, रत्नात्रय का पालन करते हुए संयम के कठिन मार्ग पर चलते हुए वह निरंतर समाज के लिए मार्गदर्शन देते रहे। आज सारा समाज उनका ऋणी है। कुछ भी देकर उनका ऋण नहीं चुकाया जा सकता, आज जो उन्होंने दिया वह निश्चित रूप से अनुकरणीय है। आज वह हमारे बीच नहीं है, किंतु जन मानस के दिलों और दिमाग में बसे हुए हैं। समाज को उनको स्मरण करना चाहिए, उनके बताएं मार्ग पर चलना चाहिए। बस यही मंगल भावना है कि हे गुरुदेव आपका आशीर्वाद, आपका जीवन हम सब साधुओं के जीवन में उतरता रहे, हम सब साधक भी आत्म कल्याण करें, रत्नत्रय का फल प्राप्त करें।
आचार्य श्री निर्भय सागरजी: आचार्य श्री की देह गयी है। देशना नहीं। जब तक देशना जीवित है, आचार्य श्री जीवित हैं। आचार्य श्री ने भीतरी इलाज किया है, बाहरी इलाज नहीं कराया। यही सच्चे संत की साधना है। देह धरती में लीन हुई है और आत्मा भक्ति में लीन हई है। सल्लेखना के समय भक्ति में लीन आत्मा, परमात्मा के मार्ग पर होती है और एक दिन स्वयं परमात्मा बनती है। गुरुवर विद्यासागर जी महाराज के एक-एक शब्द मेरी आत्मा में भगवान की दिव्यध्वनि के समान गूंज रहे हैं। एक विद्या युग बीत गया। साधु सितारे होते हैं और आचार्य एक सूर्य होते हैं। इसलिए 20 वीं सदी में उगा सूर्य 21 वीं सदी में अस्त हो गया है, लेकिन अस्त होने के पूर्व देश, समाज और जन-जन को मोक्ष मार्ग और ज्ञान का सूर्य दे गया। सच्चे संत का कभी अंत नहीं होता है, क्योंकि वह अनंत होता है।
आचार्य श्री ज्ञान भूषण:
समय सार, मुंख माटी के, यह तो कथन प्रखर प्रणेता है।
सारे जग को जानने वाले, इस युग के यह परम देवता हैं।।
त्याग, तपस्या और करुणामय कंचन सी, जिनकी छाया है।
सबके मन को मोहित करने वाली, जिनकी महावीर सी काया है।।
श्रमण सूर्य अपनी आभा फैलाकर अस्त हुआ – आचार्य अतिवीर मुनिराज
अध्यात्म सरोवर के राजहंस, श्रमण परम्परा के महासूर्य, संत शिरोमणि परम पूज्य आचार्य श्री 108 विद्यासागरजी महाराज का समतापूर्वक समाधिमरण व्यवहारिक दृष्टि से तो कष्टपूर्ण है, परंतु निश्चयवाद से उत्सव का क्षण है। मोक्ष की अविरल यात्रा पर बढ़ते हुए पूज्य आचार्य श्री ने आज एक पड़ाव और पार कर लिया। गृहस्थ अवस्था से लेकर आज तक आचार्य श्री का भरपूर स्नेह और आशीर्वाद मुझे प्राप्त होता रहा है। सन् 1996 में महुआ जी में आचार्य श्री ने मुझे आजीवन बाल ब्रह्मचर्य व्रत प्रदान कर कृतार्थ किया और एकाएक ही बोल पड़े कि ‘तेरा भविष्य उज्जवल है’। आचार्य श्री के इन वाक्यों ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया और विचारमंथन की गुत्थियों को सुलझाते-सुलझाते आज मैं उनकी कृपा से मुनि पद में अवस्थित हूं। आचार्य श्री का समाधिमरण कोई साधारण घटना नहीं है, अपितु अध्यात्मिकता में रुचि रखने वाले प्रत्येक प्राणी के लिए अपूरणीय क्षति है। आचार्य श्री से जितना मिला वह हमेशा कम ही रहेगा, क्योंकि वह तो ऐसे अनंत सागर थे कि जहां से जितना चाहे लेते रहो, वह खाली नहीं होगा। श्रमण परम्परा का सूर्य, शरद पूर्णिमा का चंद्रमा आज इस नश्वर काया का त्याग कर सिद्धत्व की ओर आगे बढ़ गया। आचार्य श्री जाएंगे, यह तो पता था, परंतु इतनी जल्दी जाएंगे, यह नहीं पता था। आज प्रसिद्ध गीतकार स्व. श्री रविन्द्र जैन की अमर पंक्तियां फिर याद आ गई – उन्हें मृत्यु ने, हमें मृत्यु के समाचार ने मारा। अंत में आचार्य श्री के चरणों में अनंत प्रणाम करते हुए शीघ्र उनके परम पद में स्थित होने की मंगल कामना तथा सदा के लिए उनकी अनंत कृपा के प्रति कृतज्ञता के साथ सादर नमन…।
आचार्य श्री सौभाग्य सागरजी: जैन समाज के लिए बहुत बड़ी क्षति हुई है। शरद पूर्णिमा पर निकला चांद आज सदियों के लिए अपनी आत्म साधना समाधिमरण करते हुए लीन हो गये। आचार्य विद्यासागर जी महाराज जैन के ही हनीं, जन-जन के थे। जिनकी चर्या समयासार, जिनकी दृष्टि संपूर्ण विश्व को देखती थी, जिनकी वाणी सभी के लिए जिनवाणी थी। कर्नाटक से निकला चांद छत्तीसगढ़ में विलीन हो गया। लेकिन वो ऐसा चांद थे, जो हमेशा-हमेशा के लिए उदित रहे। ऐसे आचार्य श्री विद्यासागर महाराज को हमारी और संघ की ओर से त्रिबार नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु।
आचार्य श्री विहर्ष सागरजी: गोशालाएं खुलवाने का समाज को संदेश दिया, हथकरघा से रोजगार दिया, प्रतिभास्थली हो, कितने ही सेंटर जहां हम आईएएस पढ़ सकते हैं, भाग्योदय तीर्थ के नाम पर अस्पताल दिया, बहुत सारे तीर्थों का जीर्णोद्धार किया। कितनी दीक्षाएं, कितने मुनि बनाकर समाज को दिए। ऐसे संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्या सागरजी हमारे बीच अब नहीं हैं। अब हैं तो उनकी यादे हैं। और उनके सपने हैं। आज हम भीगे मन से, उदास मन से उनके चरणों में भावभीनी श्रद्धांजिल, शब्दों की पुष्पांजलि समर्पित करते हैं कि हम सब भी आपके गुणों को प्राप्त करके आप जैसा बनने का प्रयास करें।
मुनि श्री सुधा सागरजी : आचार्य श्री विद्यासागरजी की एक-एक चर्याजल से भिन्न कमल कैसे रहते हैं, इतने बड़े संघ के प्रति कैसे इतने निरही हो गये कि संघ की कोई चिंतन नहीं – वो अस्वस्थ नहीं थे, वो तो सल्लेखना में लीन थे। ब्र. भैया विनोद (छतरपुर) के सामने आचार्य श्री ने अपनी भावनाएं व्यक्त की। मैं सुनकर स्तब्ध रह गया, उनके सामने आचार्य श्री ने निरीह व्रत प्रकट किया, वो तो निर्मोही हो चुके, देह में भी विदेही हो चुके, संघ में भी निसंघ हो चुके, वो तो सबकुछ त्याग चुके, यहां तक की कर्तापन का भी त्याग कर दिया, इससे पता चलता है कि उन्होंने 20-25 दिन पहले ही सल्लेखना शुरू कर दी थी, उन्होंने खुद कहा घोषणा करके नहीं करूंगा मैं, आत्मा को साक्षी मानकर सल्लेखना करूंगा, सबकुछ छोड़ दिया।
पूज्य गुरुदेव ने समयसार नहीं लिखा क्योंकि वो खुद समयसार हैं, वो स्वयं आगम हैं। जन्म-जन्म तक जब गुरु मिले, तो आचार्य श्री विद्यासागरजी जैसे मिले। उन्होंने अंगुली पकड़ कर चलना नहीं सिखाया बल्कि अंगुली दिखा कर चलाना निर्मोही हैं। 43 साल में मुझे कभी आदत में नहीं आया कि मुझे कहा जाना है, जैसा आदेश आता मैं वहीं विहार कर लेता, पर अब कौन आदेश देगा। कौन पथ प्रदर्शन करेगा हमारा। अब आगे कहां विहार होगा, पता नहीं, कैसे? कहां जाऊंगा? पता नहीं। मात्र बल्ब रह गया हूं, करंट चला गया है।
गुरुदेव सदा कहते तुम पतंग हो, डोरी तो मेरे हाथ में है, तू कहां जाएगा? अब गुरु के बिना असहाय हो गया हूं। पंचम काल में ऐसे गुरुदेव का मिलना हमारा बहुत बड़ा सौभाग्य है, कल संस्कार की पर्याय थे गुरुदेव, आज वो संस्कृति बन गये, उनको अनंत-अनंत नमोस्तु।
मुनि श्री प्रमाण सागरजी:
इस घटना से ऐसा लगा, जैसे कि गुरुदेव का हाथ सिर से हट गया, पर जैसे ही मैंने आंखें बंद की, तो मुझे लगा गुरुदेव हमारे साथ हैं, वो हमें छोड़ कर जा नहीं सकते। वो पार्थिव रूप में हमारे साथ नहीं है, लेकिन उनकी चेतना हम सबके साथ जुड़ी है। वो प्रकाश सारे भूमण्डल में फैल रहा है। उन्होंने किसी एक को नहीं, पूरे युग को दिया है और ये युग सदैव जीवंत रहेगा। वो एक युग थे, जिन्होंने समग्र संस्कृति के इतिहास में एक नये युग का निर्माण किया। मुझे पं. कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री के बोल गूंजते हैं, जो उन्होंने आचार्य श्री गुरुदेव के प्रथम दर्शन की प्रतिक्रिया स्वरूप जैन सम्पादकीय लेख के रूप में लिखा था – एक नये नक्षत्र का उदय। उसमें उन्होंने लिखा था कि मेरी णमोकार मंत्र से भी श्रद्धा उठ गई थी, मैं णमो अरिंहताणं और णमो सिद्धाणं के अलावा शेष 3 पदों का उच्चारण भी नहीं करता था, पर जब से मैंने आचार्य श्री के दर्शन किये, तो मुझे णमोकार मंत्र को पांचों पद जीवंत दिखने लगे। मैं अपने उन सभी मित्रों से कहता हूं, जिनकी मुनियों से श्रद्धा उठ चुकी है, कि एक बार आचार्य विद्या सागरजी के दर्शन करें, उन्हें णमोकार मंत्र सार्थक दिखेगा। ये ऊंचाई पाने के लिए उन्होंने अपने आप को खपाया है, वे त्याग, तप, संयम की मूर्ति बने और अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया पूरी मानव जाति के लिए, तो ऐसे विभूति बन कर उभरें। ये हमारा सौभाग्य है कि उनका आशीर्वाद, सान्निध्य प्राप्त हुआ। उनका मार्ग दर्शन, उनके सिद्धान्त, उनके उपदेश हमारे लिए प्रेरणा हैं। वो सबसे विमुख होकर के अन्तर्मुख हो गये थे, यही अंतर्मुखता एक साधक की जीवन की सबसे बड़ी पूंजी होती है, जिसे उन्होंने पूरी तरह सुरक्षित रखा और उसे अपने साथ लेकर गये। हमारे हृदय में वो बैठे हैं, उनका आशीर्वाद हमारे साथ है।
मुनि श्री अनुमान सागरजी: परम पूज्य आचार्य विद्यासागर महाराज ने भारत को ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व को एक धर्म की राह दिखाई है। कितनी दीक्षाएं दीं, कितने ही जीवों को आत्म कल्याण में लगाकर महावीर के संदेश को जन-जन तक पहुंचाया। आज इस कलिकाल में उत्कर्ष साधना के साथ रसों का त्याग तथा सभी वस्तुओं का त्याग करते हुए स्थान बदलकर शास्त्रों आदि क्रम के अनुसार उन्होंने समाधि ली। जैसा कि उन्हें पहले ही पता लग गया था कि उनका समय आ गया है, आगम के नियमों के अनुसार 3 दिन की संलेखना के साथ परिणामों को निर्मल करते हुए उनकी समाधि हुई है, निश्चित रूप से वह शिद्दत को प्राप्त हुए हैं।
मुनि श्री शिवसागरजी : महापुरुषों की विशेषता होती है कि वे कहते कम, करते ज्यादा हैं। अपने आचरण से, चारित्र से ही धर्मप्रभावना करते हैं। उनके आचार से ही भ्वय जीव प्रभावित होकर मोक्ष मार्ग में लग जाते हैं। आचार्य श्री का व्यक्तित्व इतना विशाल, महान था कि उसे शब्दों में वर्णन करना कोई आसान कार्य नहीं है। वर्तमान में उनके द्वारा दीक्षित त्यागी लगभग 550 के करीब हैं, लेकिन इससे भी ज्यादा संख्या उनकी होगी, जो आचार्य श्री के आदेश, संकेत की प्रतीक्षा में है कि कब कृपा दृष्टि पड़े तो दीक्षा के पात्र बने, लेकिन होनहार प्रबल होती है। जिन्होंने अपने जीवन काल में एक बार भी आचार्य श्री के दर्शन नहीं किये, उनका पुण्य कम रहा होगा, पश्चाताप ही शेष रह गया है। जैन बंधुओं के अलावा लाखों जैनेत्तर लोग भी उनके दर्शनों के लिये लालायित रहते थे। अपने आप को धन्य मानते थे। कर्नाटक प्रदेश में जन्मे, लेकिन दीक्षा के बाद उस प्रदेश में विहार नहीं हुआ। उनके द्वारा दीक्षित साधु त्यागी वर्ग मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के निवासी उनके आगमन की प्रतीक्षा बहुत वर्षों से कर रहे थे, इस क्षेत्र से अगर लगभग 50 के करीब बाल ब्रह्मचारी, भाई-बहन उनके संघ में शामिल हो दीक्षा ले लेते तो शायद आचार्य श्री का यहां विहार सम्भव हो सकता था। दिल्लीवासी प्रयास करें कि आचार्य श्री के द्वारा दीक्षित साधुओं के चातुर्मास इस क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा करायें तो यहां कि समाज में अभूतपूर्व परिवर्तन आ सकता है। भोग-विलास में लिप्त जीवों को सही मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है। शिथिलाचार, मनमानी में कमी आ सकती है। आचार्य श्री का जीव शीघ्र मोक्षगामी हो, ऐसी मंगल भावना भाते हैं। ध्यान रखना एयर कंडीशन में बैठने वालों को किसी भी कंडीशन में मोक्ष नहीं है।
बाबा रामदेव : इस युग के महान तपस्वी पूज्य श्री विद्यासागर जी महाराज जैन परम्परा के बहुत बड़े महापुरुष हुए हैं। जीवन को पूर्ण अनुशासन के साथ जिया और फिर अपने शरीर की इन्द्रियों को, मन को, प्राणों के बन्धन काटकर के जीवन मुक्त हो गये। ऐसे महापुरुषों का जीवन, उनका जीना और उनका जाना, अपने जीवन का निर्माण किया, करोड़ों लोगों के जीवन का निर्माण किया, निर्वाण मोक्ष को प्राप्त किया, ऐसे पूज्य विद्यासागर जी को हमारा प्रणाम।
धीरेन्द्र कृष्णा शास्त्री भागेश्वर धाम : भारत के लिए यह बड़ी दुखद खबर है। पूज्य आचार्य श्री विद्या सागरजी महाराज जैन परम्परा की महिमा को पूरे विश्व तक पहुंचाने वाले, सनातन धर्म के लिए जीने वाले और अपनी ओजमयी वाणी से, अचेतन मन में भी तरंग पहुंचाने वाले, एक ऐसे आचार्य श्री जिनके प्रति हमारी बड़ी निष्ठा थी, उनके तप की जितनी सराहना की जाए, उतनी कम है। नाम भी इतना अद्भुत कि विद्या के सागर ही थे। उनकी कमी इस संत समाज को, इस भारत को निश्चित रूप से खलेगी। इस भारत के लिए तो रत्न के समान थे, उनकी वाणी व उपस्थिति सदा रहेगी और हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देगी। उनके लिए मंगलमय प्रार्थना करते हैं, ओम शांति, शांति, शांति।
गोस्वामी सुशील जी महाराज :
परम श्रद्धेय, परम आदरणीय, युग पुरुष माननीय श्री विद्या सागरजी महाराज जो दिगम्बर परम्परा के महत्वपूर्ण विशेष संत शिरोमणि थे, उनके देवलोकगमन का समाचार सुनकर अति दुख हुआ। मगर उनके संदेश, आदेश, बताये हुए मार्ग पर चलना, ये हम सब भारतीयों का कर्तव्य है कि भारत, विश्व शांति अहिंसा और सद्भाव का हिमायती रहा है। उनके जीवन का अनुभव व ज्ञान सदा भारतवासियों के बीच में रहेगा। मैं भारत की सर्वधर्म संसद की ओर से, सभी महापुरुषों की ओर से, इस क्षति को पूर्ण नहीं किया जा सकता, लेकिन मैं एक बार उनको अपने मन से श्रद्धापूर्वक भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। ऊं शांति, शांति, शांति।