‘देखो! यानि कल की न सोचो, आज को अच्छे से देखो’ : संस्मरण आचार्य श्री विद्या सागर जी 

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जो गतिमान होता है वह प्रगति करता है। समय के साथ जो अपनी गति बनाता है वही अपने लक्ष्य तक पहुँच पाता है। समय की गति ही एक ऐसी गति है जिसे रोका नहीं जा सकता। यदि आदमी समय की गति को अपने अंतरंग से जान जाता है, तो वह फिर बाहरी परिवर्तन पर विश्वास नहीं करता है, अपने अभ्यंतरजगत् की ओर निहारा करता है। व्यवहारिक जीवन में प्राय: लोग बाहरी- परिवर्तन को ही अपना परिवर्तन मान बैठते हैं, यही उनकी सबसे बड़ी भूल है। आचार्यश्री के विचारों की दिशा में हम लोगों ने जाने का प्रयास किया और भविष्य के बारे में उनके विचारों को जानना चाहा तो एक ही उत्तर मिलता है- ‘देखो! यानि कल की न सोचो, आज को अच्छे से देखो।’ एक प्रसंग ऐसा ही बना।

प्रसंग : बात 31 दिसंबर 1997 की है। हरदा से आचार्यश्री ने सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावर जी की ओर विहार किया। रास्ते में हम साथ थे– चर्चा चली। नेमावर जी पहुँचने पर एक इतिहास बनने वाला है। सन् 1995 का समापन सन 1996 का प्रारंभ यहीं पर हुआ और अब सन् 1997 का समापन और कल 1998 का प्रारंभ भी यहीं पर होने जा रहा है। आचार्यश्री बोले- ‘पल का भरोसा नहीं है, कल की बात कर रहे हो।’ हमने कहा- ‘महाराज जी इतना तो काल पर भरोसा करना पड़ता है।’ आचार्यश्री- ‘करना पड़ता है ना? पर होता नहीं है।’ हम आचार्यश्री के अभिप्राय को समझ गए और हँसने लगे।

आचार्यश्री ने फिर कहा- ‘संसारी प्राणी की यही तो कमजोरी है कि ‘सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं’ यह आदमी अपने लिए वर्षों का इंतजाम करने की सोचता है, जबकि अगले ‘पल’ क्या होने वाला है, इसे ज्ञात नहीं है, फिर भी आने वाले ‘वर्षों’ पर भरोसा कर बैठता है। भरोसे की जिंदगी जीता रहता है। यही व्यक्ति का सबसे बड़ा अज्ञान है।’