कुण्डलपुर महामहोत्सव में संत शिरोमणि आचार्य श्री ने कहा-सल्लेखना दूर नहीं, यह भूल है, सभी श्रमण लेते हैं सल्लेखना, कौन-सी और कब? सल्लेखना को हमेशा याद रखना चाहिए

0
1765

कुण्डलपुर महामहोत्सव में मोक्ष कल्याणक के अवसर पर आचार्य श्री ने 23 फरवरी कोलगभग 23 मिनट मंगल प्रवचन प्रात: 8 बजे शुरू किये। इससे पूर्व मंच से 2 एकड़ में हथकरघा केन्द्र की घोषणा की गई, जिसकी कुण्डलपुरी साड़ी का प्रदर्शन किया।

संत शिरोमणि आचार्य श्री ने अपने संक्षिप्त दिव्य बोध का संकेत कराते मोक्ष कल्याणक के अवसर पर सिद्ध पद को मंजिल व सल्लेखना को उस तक पहुंचने वाली सीढ़ी बनाकर उद्बोधित किया। उन्होंंने प्रवचन की शुरूआत नम: सिद्धेभ्य: से की और कहा कि सिद्धों को नमस्कार हो, तीर्थंकर भगवान अरिहंतों को, आचार्यों को, उपाध्यायों को, साधु परमेष्ठियों को नमस्कार नहीं करते, मात्र सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार करते हैं। शेष चारों परमेष्ठी एक प्रकार से संसारी कहलाते हैं, किंतु विशिष्ट परमेष्ठी में आने वाले सिद्ध परमेष्ठी संसरातीत हैं।

उन्होंने कहा कि हम लोग शरीरातीत व्यवस्था का विचार नहीं करते, वह क्या स्वरूप होगा, चिंतन नहीं कर सकते। एक गिलास में सुगंधित पदार्थ, जो खाने योग्य हो सकता है, उसे लिया कुछ, स्पर्श किया, स्पर्शन ज्ञान, सुगंधि-नासिका में गई, गंध का बोध हुआ, देख रहे आंखों से पीला वर्ण का है, सुन भी रहे हैं। ये गुण इन्द्रियों का विषय हो गया। सोचते हैं मन के द्वारा – इन चारों गुणों का इन्द्रियों के माध्यमों से ज्ञान हो गया, पर बताओ स्वाद कैसा आया, जो न छूने, सूंघने, देखने, सुनने से नहीं आता, जैसे ही स्वाद लेते हैं, वैसे ही चारों शेष इन्द्रियों से स्वाद नहीं आता, इसी तरह सिद्ध परमेष्ठी का स्वाद किसी को नहीं आता, जब तक वह स्वरूप नहीं आएगा। आत्मा की बात करते हैं, पर उसके स्वरूप का अनुभव नहीं करते।

परम सुख की विवेचना करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि प्रवचनसार में कुंद कुंद देव ने इस स्वरूप का विवेचन किया कि अरहंत परमेष्ठी आखिर क्या कहते हैं। अरहंत परमेष्ठी एकमात्र परम सुख का ध्यान करते हैं। उन्हें अनंत चतुष्टय की उपलब्धि हो गई, फिर भी परम सुख का ध्यान ‘स्वस्थ’ होने के लिये करते हैं। तब न दवाई, न दवा से, न दुआ से, वो तो केवल स्वयं आभास से ही अनुभूत होते हैं।

मंजिल और सीढ़ी का उदाहरण देकर आचार्य श्री ने समझाया कि अनंत चतुष्टय के बाद भी कुछ सीढ़ियां विराजमान हैं, जैसे मंजिल से जुड़ा जीना रहता है। कोई बड़ा महल आप खरीदो, तो सीढ़ियों से ही ऊपर जाते हो, यह मार्ग वस्तु है, मंंजिल तक पहुंचाती है, पर वो सदा मंजिल के बाहर रहती है, मंजिल नहीं होती, वह केवल मार्ग रहता है। वो परम सुख, मार्ग में नहीं, मंजिल में मिलेगा।

बड़े ताले और छोटे चाबी के प्रसंग से आचार्य श्री ने कहा कि सभी ने बरसों से स्वपन देखा, अतीत में भी गये, वह दिन, वह घड़ी, वह क्षण, कब प्राप्त होगा? बड़े बाबा का पंचकल्याणक महोत्सव भी हो चुका है। हमें भी यह स्वरूप प्राप्त करना है। बोलियां चढ़ती-चढ़ती रुक जाती हैं, मेरे चिंतन में लगा कि उन्हें चाबी नहीं मिल रही होगी पर चाबी से खुल नहीं रही होगी। क्यों ताला तब भी नहीं खुलता। भले ही ताला बड़ा है और चाबी छोटी हो, तब भी खोल देती है। पर मन में खोलने का विचार तो आना जरूरी है। ऐसा विचार लाओ मन में, तभी भी अनंतकालीन गुत्थियां खुल जाती हैं। इस प्रकार आचार्य श्री ने बहुत गहरे चिंतन सरल उदाहरण से स्पष्ट कर दिया।

आत्मा के दिगंबरत्व की व्याख्या करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि सभी ग्रंथियों को छोड़, निर्ग्रन्थ अवस्था को प्राप्त करता हूं। शरीर तो दिगंबर हो गई पर आत्मा ने तो इस शरीर को ही ओढ़ रखा है। यह तो एक वस्त्र को उतार कर दूसरा ओढ़ रखा है। मोक्ष कल्याणक पर आत्मा शरीर को छोड़ दिगंबरत्व को प्राप्त करती है। इससीलिये सिद्ध विशिष्ट हैं। निर्वाण कल्याणक कुंडलपुर में मनाया गया, पर भगवान की अनुपस्थिति में मनाया गया। सभी कल्याणकों को शरीर के समय मनाया। जब प्राण आयु सिद्ध बननने के बाद समाप्त हुआ, तब सौधर्म इन्द्र को ज्ञात हुआ, अब वहां क्या है? निर्वाण होने के बाद वह शरीर की अनुपस्थिति में, कुछ भी नहीं, वह निर्वाण कल्याणक का निर्वाण कांड पढ़कर, सामान्य रूप से 8 गुणों को पढ़कर मनाता है।

वियोग की महत्ता को बताते हुए आचार्य श्री ने कहा कि इसके बाद संयोग और वियोग होता है। उन्हें वियोग अनंतकाल के लिये होता है, दुखों की कड़ी संयोग के कारण होती है। हमेशा भावना रखो कि ऐसा वियोग मिले, जिससे दुखों का संयोग कभी ना मिले। पंचकल्याणक कई हुए, पर निर्वाण कल्याणक पर अनुभव होता है कि एक क्षणिक दिखता है, क्योंकि आत्मा अरूपी होता है, केवल रसना द्वारा स्वाद प्राप्त होता है, इसलिये बाकी सब अचेतन है। जब तक स्वाद नहीं आये, तब तक समझिये ज्ञान चेतना उद्घाटित नहीं हुई। सिद्ध परमेष्ठी को बारम्बार नमस्कार। संकल्प लीजिये, आपके जैसे पांच कल्याणक हुये, हमें और कुछ नहीं चाहिए, सिद्धत्व की उपलब्धि में जो आपने साधना की थी, हमें भी उसी प्रकार का संयोग, यही भावना भाये।

कषाय व व्यवहारिक सल्लेखना पर प्रकाश डालते हुए आचार्य श्री ने कहा कि गुरु महाराज को याद रखते हुए सबसे अपेक्षा रखता हूं कि सल्लेखना रखने को जो गुरुजी को प्राप्त हुये थे, यहां शरीर के प्रति मोह ममत्व को छोड़ना ही कषाय सल्लेखना है। सल्लेखना को हमेशा याद रखना चाहिए। समीचीन रूप से कषायों का हरण करना, कषाय सल्लेखना मानी जाती है। सल्लेखना तो मुनि महाराज, श्रमण हर क्षण करते रहते हैं, करना चाहिए क्योंकि निश्चय से तो जब स हमने श्रमणत्व ग्रहण किया है, तब से समता रखना ही सल्लेखना है। इस प्रकार वृद्धाअवस्था होते ही ज्ञान सागर महाराज अंतिम समय में लीन रहे, हमें भी उपलब्ध हो। कषायों के कारण ही आत्मा को दुख होता है। अभी सल्लेखना दूर नहीं, यह भूल है। उनको हर समय याद रखना चाहिये। शरीरातीत व्यवस्था को प्राप्त करने के लिये आयु कर्म के एक-एक क्षण को गिनना चाहिए, इसमें अपने आप ही मोह का संबंध शरीर के साथ जो जुड़ा है, वो टूटता जाएगा। एक-एक तरंग क्रम से आगे बढ़ाते हुए कषाय सल्लेखना है, जो अंत वाली सल्लेखना व्यवहार से कहा गया है।
– शरद जैन / सान्ध्य महालक्ष्मी