आचार्यश्री विद्या सागर जी ने बीते 41 वर्ष के इतिहास को बताते हुए कहा कि उत्साह में उत्सुकता नहीं होना चाहिए। बडे़ बाबा का मंदिर जीर्णशीर्ण हो गया था, भूकंप के प्रभाव से दरार आ गईं थी, चिंता जगत को थी, कार्य था लेकिन अनिवार्य था, सरकार का अनुमान कुछ हट कर था, अल्प समय में जो कार्य हुआ, वह अब पूरे भारत में दिखने लगा है, इसी वर्ष पंचकल्याणक के संकेत पूर्व में ही सभी को दे दिए थे, इस कार्य में सरकार भी सहयोग कर रही है। सड़क बना रही आदि कार्य के लिए कमर कस ली है, औपचारिकता अलग बात है। कर्तव्य में भी औपचारिकता होती है, आगे कार्य कैसा होगा यह अलग है, हमारे देवता अहिंसा है, अहिंसा की भक्ति पूजा करो, सादगी, पवित्रता, पावनता, शीतलता यहां की परंपरा रही है जिसे कायम रखना है।
उन्होंने कहा कि ट्रेन स्टेशन पर आने से एक-दो किमी दूर से धीमी होने लगती है, बीच में घंटी बजती है और स्टेशन पर संकेत मिल जाता है। स्टेशन पर ट्रेन में उतरने की सुविधा मिल जाती है, यदि संकेत के बिना ट्रेन के ब्रेक लगा दिए जाएं तो कई व्यक्तियों को साथ लेकर चली जाएगी। जीवन एक गाड़ी है, जिस स्टेशन पर उतरना है, उतर जाओ, जो रह गया है। उसे आगम के अनुसार पूर्ण करना है। यह बात आचार्यश्री ने कुण्डलपुर में प्रवचन के दौरान कही।
उन्होंने कहा कि सल्लेखना सभी के लिए अनिवार्य है। उन्होंने गुरुजी से छह कालों का संकल्प लिया था। हर काल का अपना वर्गीकरण है। गुरुजी ने कहा था जीवन मरण है न जीवन की इच्छा है, न मरने की इच्छा है। यहां मिथ्या के बीच में कोई राग-द्वेयश नहीं रखता। उन्होंने कहा कि आगे जीवन क्षणिक है, जीवन कब उठ जाता है, पता नहीं चलता। उन्होंने कहा कि यहां आंखों में पानी न आए, मुख में पानी आए, जीवन में भावना के साथ चरितार्थ करना है। उन्होंने कहा कि हमने कभी गुरु से कुछ भी मांगा नहीं। उन्होंने कहा कि मैं तो साधक हूं, साधना मेरे लिए प्रेम है। यहां पर अपना कुछ नहीं है, गुरुकुल बनाओ, जहां पर बने, वहां पर जाओ।
इससे पहले मुनिश्री प्रणम्य सागर ससंघ एवं मुनिश्री वीर सागर ससंघ के कुण्डलपुर पहुंचने के उपरांत आचार्यश्री ने अपने आशीष वचन दिए।