आचार्य श्री श्री विद्यासागर महाराज जी को दाहिने पैर के अंगूठे में बहुत दर्द है, लेकिन चेहरे पर निश्छल बाल्य मुस्कान

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कल सुबह सुबह शहपुरा से मित्र डॉ प्रतीक जैन का फ़ोन आया फ़ोन उठाते है व्यग्र भाव से बोला भाई आचार्य श्री श्री विद्यासागर महाराज जी को दाहिने पैर के अंगूठे में बहुत दर्द है उन्हें क्या दे सकते हैं सुनते ही मेरा मन भी दुःखी हो गया चूंकि मुझे मालेगांव में भी और ज़बलपुर में भी कई जैन संतों का उपचार करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है तो मुझे पता था कि उनके नियम बड़े कठिन होते हैं इसलिए उपचार करते हुए बड़ी मुश्किल जाती है लेकिन आचार्य श्री की पीड़ा के बारे में जानकर मन दुखी था कि कैसे उनकी पीड़ा दूर की जाए और यह भी सभी जानते हैं वे एक ही बार आहार लेते हैं और सिर्फ काष्ठ औषधियाँ ही लेते हैं उनमें भी विशेष चयनित अर्थात उनका उपचार बाह्य औषधियों से ही करने का विकल्प बचा हुआ था

मन मे विचार था कि एक बार उनके दर्शन करके साक्षात जांच का अवसर मिले तो बेहतर उपचार दे पाऊंगा इस विचार में ही था कि प्रतीक का फ़ोन आ गया कि क्या तुम यहाँ आकर देख लोगे बस मुझे क्या चाहिए था मैंने तुरंत कहा जब आचार्यश्री का आदेश हो और इसके बाद शाम का समय निर्धारित हुआ। हम शाम को आचार्य श्री के पास पहुँचे उनके कक्ष में प्रवेश के साथ ही उनका निर्मल दर्शन प्राप्त हुआ आचार्य श्री के व्यक्तित्व में सूर्य का तेज भी है और चंद्रमा कक सौम्यता भी और चेहरे पर निश्छल बाल्य मुस्कान हम उनके चरणों के पास बैठे और कुछ प्रश्न पूछे जिसका बड़ी ही सरलता और प्यार से जवाब दिया उन्होंने उसके बाद हमने उनसे स्पर्श कर जाँच करने की अनुमति माँगी जिसे उन्होंने बड़े प्यार से मुस्कराते हुए स्वीकार कर लिया

मैंने दबा कर पूछा आचार्य श्री दर्द है क्या उन्होंने कहा हाँ है तब मैंने देखे कि उनमें दर्द का एहसास है लेकिन भाव नहीं प्रतिक्रिया नहीं उनकी मुस्कुराहट वैसे ही बनी हुई थी इसके बाद उन्होंने आयुर्वेद के कुछ उपचार मुझे बताए जो उन्होंने अब तक किए थे इसके बाद जो औषधि मैं ले गया था उसे समझा और प्यार से स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात उन्होंने आयुर्वेद पर चर्चा छेड़ दी उन्हें गजब का ज्ञान है आयुर्वेद का

मैं विस्मृत उन्हें सुनता ही रहा उन्होंने मुझे कहा कि हमें आयुर्वेद को गांव गांव तक पहुंचाना है मैंने कहा आचार्य श्री आपका आशीर्वाद प्राप्त हो गया अब यह होने से कोई नहीं रोक सकता । लगभग 45 मिनट के सानिध्य के पश्चात हम उनका आशीर्वाद लेकर बाहर आ गए शरीर तो बाहर आ गए मन अभी भी उस कक्ष में है आत्मा का तृप्त होना क्या होता है इसका भान हो गया कल। ये आचार्य श्री की ही महिमा थी कि मुझ जैसे तुच्छ वैद्य को उनका उपचार करने का अवसर मिला।

नमोस्तु आचार्य श्री।
डॉ.सुमित श्रीवास्तव जी की कलम से (जबलपुर)