यदि स्वच्छंद हृदय से क्षमा याचना की जाती है, तो यह अपमान की भावना का निराकरण करती है- श्रमण श्री विभंजन सागर मुनिराज

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सान्ध्य महालक्ष्मी / 18 सितंबर 2021
‘सन्त्वैषु मैत्री का पर्व क्षमावाणी’ – श्रमण श्री विभंजन सागर मुनिराज
अर्थात् मनुष्य का आभूषण रूप है, रूप का आभूषण गुण है और गुण का आभूषण ज्ञान एवं ज्ञान का आभूषण क्षमा है। भारत की प्राचीन श्रमण संस्कृति की अत्यंत महत्वपूर्ण जिन परम्परा ने क्षमा को पर्व के रूप में प्रचलित किया है। जैन दर्शन स्तम्भ क्षमा है। पर्यूषण पर्व के पश्चात मनाया जाने वाला क्षमावाणी पर्व अन्तर्मन की स्वच्छता, कषाय विमोचन, आत्म निरीक्षण, आत्म शोधन और अन्तस की कालिमा को प्रक्षालित करने का पर्व है। सौहार्द, सौजन्यता और सद्भावना के पर्व क्षमावाणी पर एक-दूसरे से क्षमा मांगकर मन की कालुषता को दूर किया जाता है। मानवता जिन गुणों से समृद्ध होती है, उनमें क्षमा प्रमुख और महत्वपूर्ण है। कषाय के आवेग में व्यक्ति विचार शून्य हो जाता है। जैसे लकड़ी में लगने वाली आग दूसरों के साथ-साथ स्वयं लकड़ी को भी जलाती है, इसी प्रकार क्रोध कषाय को समझ कर उस पर विजय पा लेना ही क्षमा धर्म है।

रामधारी सिंह दिनकर ने कहा है कि क्षमा वीरों को ही सुहाती है। उन्होंने लिखा है कि क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसका क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत सरल हो। क्षमा को सभी धर्मों और सम्प्रदायों में श्रेष्ठ गुण करार दिया गया है। मनोविज्ञानी भी क्षमा को मानव व्यवहार का अहम हिस्सा मानते हैं। उनके अनुसार लंबे समय तक मन में बदले की भावना, ईष्या, जलन, और दूसरों के अहित का चिन्तन व प्रयास मनुष्य को शारीरिक एवं मानसिक रूप से विकृत बना देता है।

क्षमायाचना या क्षमादान चाहे दो आत्मीय जनों के बीच हो अथवा समूहों या राष्ट्रों के बीच, यदि स्वच्छंद हृदय से क्षमा याचना की जाती है, तो यह अपमान की भावना का निराकरण करती है। क्षमाावाणी पर्व हमें ‘आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत’ की शिक्षा प्रदान करता है। क्षमाावाणी के पावन पर्व पर ‘सत्वेषु मैत्री’ और ‘मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे,’ जैसी पंक्तियों को चरितार्थ होते देखा जा सकता है। यह पर्व हमें सद्भावना के साथ ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया:’ की भावना भाने की प्रेरणा देता है। यदि हम वास्तव में जिन शासन के अनुयायी हैं, तो हमारे हृदय में क्षमा की धारा प्रवाहित होनी चाहिए, तभी हमारा आचरण विश्वबन्ध बन सकता है।

खम्मामि सव्व जीवाणं, सव्वे जीवाखमन्तु मे।
मिन्ती मे सव्व भूदेसु, बैरं मज्झंण केण वि।।

(अर्थात मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूं, सभी जीव मुझे क्षमा करें, सभी जीवों के प्रति मेरा मैत्री भाव है, किसी के प्रति मेरा बैर भाव नहीं है।)