आश्विन कृष्ण अमावस्या : 06 अक्टूबर : गणनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के गुरु आचार्य श्री वीर सागर जी महाराज समाधि दिवस : 81 वर्ष का संयमी जीवन

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1877

भारतीय परंपरा में देव के बाद गुरु की भक्ति का स्थान आता है
फागुन शुक्ला 7 संवत 1980 सन 1923
आश्विन कृष्णा अमावस्या समाधि दिवस के अवसर पर परम पूज्य आचार्य श्री वीर सागर जी महाराज को कोटिशः नमोस्तु समाधि
स्मृति दिवस के दिन गुरुओं को स्मरण किया जाता है
आचार्य श्री शांति सागर जी की अक्षुण्ण मूल बाल ब्रह्मचारी पट्ट परम्परा के पंचम पट्टा धीश वर्तमान में वात्सल्य वारिधि आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी है

परम पूज्य आचार्य श्री वीर सागर जी महाराज ने महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद जिले में वीर ग्राम में हीरालाल जी गंगवाल के रूप में जन्म लिया
पूर्णिमा को आपका जन्म हुआ एक तरह से उनकी जीवन की कथा पूर्णिमा से अमावस्या तक है
जन्म के 45 दिन पश्चात जिन मंदिर में णमोकार मंत्र सुना कर 8 वर्ष की उम्र तक के लिए अष्ट मूलगुण पालन का नियम दिया गया

धार्मिक पाठ शाला संचालन
सन 1917 में कचनेर अतिशय क्षेत्र में धार्मिक पाठ शाला का संचालन प्रारम्भ किया

7 प्रतिमा नियम
सन 1921 में नांद गांव में चातुर्मास कर रहे ऐलक श्री पन्ना लाल जी से प्रेरणा पाकर 7 प्रतिमा के नियम लिए
81 वर्ष के जीवन में वह बाल ब्रह्मचारी रहे
ऐलक श्री पन्नालाल जी से उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत लिया
श्री रामसुख जी पिता एवं श्रीमती भागवती माता जी थी
प्रथम आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के प्रथम मुनि शिष्य बनने का सौभाग्य श्री हीरालाल जी को मिला और वह मुनिश्री वीर सागर जी कहलाए
81 वर्ष का संयमी जीवन रहा

12 वर्ष तक गुरु सानिध्य में रहे जीवन को अमृत तुल्य बनाया

बिहार कर उत्तर भारत में चतुर्विध संघ की स्थापना की

20वीं शताब्दी में चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने मुनि धर्म का प्रवर्तन किया था

कचनेर में धार्मिक पाठशाला का निर्माण किया जिसमें हीरालाल जी रावका नाम के प्रथम शिष्य बने बाद में वे आचार्य शिव सागर जी के रूप में प्रथम मुनि शिष्य बने
आचार्य जी ने 47 वर्ष की उम्र में क्षुल्लक दीक्षा ली क्षुल्लक अवस्था। मे एक वर्ष रहे

आचार्य श्री शान्तिसागर जी आचार्य पदारोहण महोत्सव
सम डोली में हुआ उस दिन आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज ने 3 मुनि दीक्षाएं दी

मुनि श्री वीर सागर जी ऐलक श्री चंद्र सागर जी तथा मुनि श्री नेमी सागर जी की मुनि दीक्षा हुई है

79 वर्ष की उम्र में प्रथमाचार्य आचार्य श्री शांति सागर जी ने प्रथम पट्टा धीश धोषित किया
आप ने गुरु आदेश के पालन में आचार्य पद ग्रहण किया आचार्य श्री वीर सागर जी लोकेषणा प्रचार प्रसार से बहुत दूर थे
उन्होंने 28 दीक्षाएं दी
गणनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी संभवत एक मात्र शिष्या वर्तमान में है
10 मुनि दीक्षा
1 प्रथम मुनि श्री शिवसागर जी
2 मुनि श्री धर्म सागर जी
3 मुनि श्री पदम सागर जी
4 मुनि श्री सन्मति सागर जी
5 मुनि श्री आदि सागर जी
6 मुनि श्री सुमति सागर जी
7 मुनि श्री श्रुत सागर जी
8 मुनि श्री अजीत कीर्ति जी
9 मुनि श्री जय सागर जी
10 मुनि श्री श्रुत सागर जी

11 आर्यिका दीक्षा
1 आर्यिका श्री इंदु मति जी
2 श्री वीर मति जी
3 श्री विमल मति जी
4 श्री कुंथुमति जी
5 श्री सुमति मति जी
6 श्री पार्श्व मति जी
7 श्री सिद्ध मति जी
8 श्री सुपार्श्व मति जी
10 श्री वासु मति जी
11 आर्यिका श्री शांति मति जी

एक ऐलक दीक्षा दो क्षुल्लक
1 श्री सिद्ध सागर जी
2 श्री सुमति सागर जी
4 क्षुल्लिका दीक्षा

कुल 28 साधु श्रमण बनाए
अंतिम शिष्य के रूप में आचार्य कल्प श्री श्रुत सागर जी एवं अंतिम शिष्याआर्यिका श्री सुपार्श्वमति माताजी रही
शिष्यों की सूची के नाम जितने उपलब्ध हुए है दिए गए है

चातुर्मास सूची
प्रारम्भ के 12 चातुर्मास दीक्षा गुरु आचार्य श्री शांति सागर जी के साथ किये
1 1924 समडोली
2 1925 कुम्भोज बाहुबली
3 1926 नादणी
4 1927 कुम्भोज बाहुबली
5 1928 कटनी mp
6 1929 ललितपुर
7 1930 मथुरा
8 1931 देहली
9 1932 जयपुर
10 1933 व्यावर
11 1934 उदयपुर
12 1935 गौरल
13 1936 ईडर
14 1937 टाका टूका
15 1938 इंदौर mp
16 1939 इंदौर
17 1940 कचनेर
18 1941 कन्नड़
19 1942 कारंजा
20 1943 खातेगांव mp
21 1944 उज्जैन mp
22 1945 झालरापाटन
23 1946 रामगंजमंडी
24 1947 नैनवा
25 1948 सवाई माधोपुर
26 1949 नागौर
27 1950 सुजानगढ़
28 1951 फुलेरा
29 1952 ईसरी
30 1953 निवाई
31 1954 टोडारायसिंह
32 1955 जयपुर आचार्य
33 1956 जयपुर
34 1957 जयपुर समाधि

81 वर्ष की उम्र में जयपुर खनिया जी। में आश्विन कृष्ण अमावस्या सोमवार को आपकी समाधि हुई कोटिशः नमोस्तु

महत्वपूर्ण सूत्र
समाज मे संगठन का कार्य करो
विघटन कभी मत करो
सदा सुई का काम करो कैची का नही
संध में परस्पर संगठित रहो
गांठ लगाना मत भूलो
अर्थात दीक्षा के परिणामों को याद रखो कि हमने क्यो दीक्षा ली है कही हम भटक कर ख्याति लाभ पूजा में तो नही लगे है
तृण मत बनो पाषाण बनो
अर्थात दृढ़ता से अपने व्रतों का पालन करो
जिनवाणी जिनागम के स्वाध्याय से असंख्यात कर्मो की निर्जरा होती है
स्वाध्याय चंचल मन को रोकने का महत्वपूर्ण उपाय है
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि ब्रह्मचारी अवस्था मे धी नमक तेल और मीठे इन चार रसों का आजीवन त्याग कर दिया था

आचार्य श्री की पीठ में फोड़ा हो जाने पर डॉक्टर ने कहा कि इलाज के लिए दवाई सुधाना होगी आचार्य श्री ने कहा आप इलाज करो 1 धण्टे तक डॉक्टर इलाज करता रहा शारीरिक पीड़ा से अविचलित रह कर स्वाध्याय करते रहे शरीर और आत्मा की भिन्नता को जीवन मे उतारने का इससे बड़ा उदाहरण नही हो सकता है चारित्र चूड़ामणि
आचार्य श्री वीर सागर जी के पुनीत पावन चरणों मे कोटिशः नमोस्तु

राजेश पंचोलिया इंदौर 9926065065