मान, अहंकार एवं लोभ के कारण ही मानव सभी पाप करता है, : मुनिराज श्री वीर सागर जी महाराज

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आज का मानव सब कुछ प्राप्त होने के उपरांत भी,कर्तव्यविहीन एवं कृतज्ञहीन हो गया है,उत्तम कुल,वीतराग धर्म,भारत जैसी देवभूमि,निरोगी काया,देव शास्त्र गुरु का सानिध्य,पर्याप्त धन-वैभव,संपत्ति,सम्मान,प्रतिष्ठा अर्थात अपार पुण्य से प्राप्त इस अनुकूलता को शुभ में प्रवृत्त होकर,पुण्य से पुण्य बढ़ाने में नहीं करता परिणाम यह होता है पुण्यहीन होते ही अरबपति से रोडपति बनने में देर नहीं लगती, प्राप्त अनुकूलता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए,अपने उपयोग( समय) को देव दर्शन, पूजा विधान,नियम,संयम, तपस्यशरण साधना में व्यतीत करते हुए पुण्य से पुण्य बढ़ाना चाहिए हिंसा,झूठ,चोरी,कुशील एवं परिग्रह से निवृत्ति का मार्ग अपनाते हुए मन वचन काया की विशुद्धि के साथ भावों को निर्मल करने का सम्यक पुरुषार्थ करना चाहिए,इसी में मानव पर्याय की सार्थकता है और आत्मा का कल्याण निहित है,
पापों का विश्लेषण करने पर यह अनुभव में आता है कि मान, अहंकार एवं लोभ के कारण ही जीव सभी पाप करता है,मानव को अपनी मान कषाय एवं लोभ की प्रवृत्ति पर नियंत्रण लगाने की नितांत आवश्यकता है,अगर इन दो कषाय पर विजय प्राप्त कर ली जाती है तो अन्य दो कषाय क्रोध एवं मायाचारी जीव का अहित नहीं कर सकती,आगम में यह अंकित किया गया है कि मनुष्य पर्याय उसमें भी पुरुष,वीतराग जैनधर्म,सभी इंद्रियों की उपलब्धता,देव शास्त्र गुरु का पावन सानिध्य एवं अन्य भौतिक अनुकूलताएं अनंत पुण्य से प्राप्त होती हैं,अतः इनको व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए,इसका लाभ प्राप्त करते हुए आत्मा के उत्थान कल्याण की यात्रा को आगे बढ़ाना चाहिए..!