#वर्षायोग तिथि से हटकर, रविवारों में फैला, अब धर्म चलने लगा धन की बैसाखी से, अब जैन पर्व तिथि गौण, सण्डे बन गये फेस्टिवल डे

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॰ आधुनिकता और दिखावे का रंग चढ़ता वर्षायोग पर
॰ कार्यक्रम में हर धार्मिक अनुष्ठान धन की बैसाखी पर
॰ प्रकृति ने भी अपने स्वरूप को बदला
9 जुलाई 2022/ आषाढ़ शुक्ल दशमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/

वर्ष 2022 के वर्षायोग का समय आ गया आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी और इस बार आ रहे रविवार 10 जुलाई से अगामी रविवार 17 जुलाई के बीच 95 से 98 फीसदी चातुर्मासों की स्थापना हो जायेगी। वैसे ज्ञानवृद्ध, सबसे वयोवृद्ध, सबसे अधिक दीक्षा जीवन व्यतीत करने वाली गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमति माता जी ने एक चर्चा में सान्ध्य महालक्ष्मी को बताया कि आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी के तीसरे पहर में वर्षायोग की स्थापना होनी चाहिये।

इसका कारण जानने के लिये काफी पहले श्वेत पिच्छाचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने सांध्य महालक्ष्मी को विशेष भेंट में बताया था कि चातुर्मास की स्थापना शाम के समय इसलिये होती है कि शाम को यदि कोई मेहमान आता है, तो वह एक दिन के लिए वहां ठहरता है। यही कारण है कि वर्षायोग की स्थापना आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी (जो इस वर्ष 12 जुलाई) को शाम में करते हैं, और निष्ठापन कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी प्रात: काल में करते हैं। श्री महावीर स्वामी के मोक्ष कल्याणक से ठीक एक दिन पहले। यानि 105 दिन का वर्षायोग या कहें श्रमण-श्रावक के संयोग से होने वाली ज्ञान की पठशाला, अंतर्यात्रा, ‘पर’ से ‘स्व’ की ओर गमन।

वर्षायोग पर चढ़ता आधुनिकता का रंग

अगर इस वर्तमान के कालचक्र का पहिया प्राचीन काल तक वापस घुमा दें, तो तब श्रमण संत, आज की तरह नगर, गांवों में नहीं, जंगलों में निवास करते थे और वृक्षों के नीचे एकासन से योग धारण करते थे, क्योंकि उस समय संहनन विशेष होता था। पर आज के समय में संहनन कम होने के कारण साधुजन शक्ति के अनुसार ही साधना करते हुए पूर्व परम्परा को अक्षुण्य बनाये हुए हैं। पर यह भी कहना होगा कि अब वर्षायोगों पर आधुनिकता भी अपना रंग चढ़ा चुकी है। ऐसा सामान्यत: अधिकांश कार्यक्रमों में देखने को मिल जाता है। स्थानीय मंदिरों की बजाय अलग-अलग स्थलों पर होने लगी हैं, चकाचौंध – रोशनी में स्थापना का मूल उद्देश्य गौण सा होने लगा है।

संत की अपनी क्रियायें और सार्वजनिक कार्यक्रम में बंटता वर्षायोग
वर्षायोग स्थापना केवल सार्वजनिक कार्यक्रम के रूप में ज्यादा बदल गया। हम लोगों का वहां जाना, गीत-संगीत, संक्षिप्त प्रवचन और अंत में भोजन। हां, इन सबके बीच कलशों की एक लंबी बोलियां, या फिर उनका मूल्य पहले ही तय होता है, कुछ जगह छोटी राशि के मूल्य लकी ड्रा रूपी रोमांच भी होता है। इन कलशों के बारे में अलग से बात करेंगे। यहां पर समझते हैं कि यह सार्वजनिक कार्यक्रम ही बडेÞ पण्डाल, बड़े चौड़े कार्ड, बैनर, होडिंग, प्रचार, संगीतकार का आना, संत की पूजा-पाद प्रक्षालन आदि प्रवचन में दिशाओं में दूरी का तय करना और उसके बाद सबके लिये जैनों वाला शाही भोजन।

क्या यही तक सीमित होता है वर्षायोग स्थापना। अब तो इसके अलावा तिथियों में भी फेरबदल हो गया है। आषाढ़ शुक्ल चर्तुदशी को 5 फीसदी भी स्थापनायें सार्वजनिक कार्यक्रम के रूप में नहीं होती। हां, साधु संत जरूर अपनी क्रियायें उस दिन कर लेते हैं। यानि अब यह स्थापना का कार्यक्रम भी दो हिस्सों में होने लगा है। एक आंतरिक क्रियाओं वाला और दूसरा सर्वजनिक और यह सार्वजनिक की तिथी, का मेल होता है सिर्फ रविवार से। यानि जैन लोगों के अधिकांश पर्व हो या कार्यक्रम अग्रेंजी सण्डे के हिसाब से तय होते हैं।

जैन समाज की तिथि गौण, सण्डे बन गये कार्यक्रम डे

इस बार ही देख लीजिये रविवार तिथि पर 10, 17, 24 जुलाई और कहीं तो 31 जुलाई तक यह वर्षायोग स्थापना होगी। यह अलग-अलग तिथियों में इसलिये कि भक्त लोग, उनके कार्यक्रम में आ सकें। यही नहीं, क्षमावाणी, महावीर स्वामी जन्मकल्याणक, वार्षिक रथयात्रा, आदि अनेक कार्यक्रम अब जैन तिथि नहीं, अंग्रेजी सण्डे पर आश्रित हो गये हैं। हां, कही-कहीं अपवाद देखने को जरूर मिलता है।

पब्लिक का जुटना और त्यौहार को उसी तिथि पर आयोजित करना, इन दोनो में अब संतुलन रखना बेमानी हो गया है। आज जैन समाज में सण्डे ही फेस्टिवल डे के रूप में सिमट कर रह गया है और यह केवल जैन धर्म में ही होता है, सबसे कम जनसंख्या वाले समाज में ही यह फेरबदल देखा जाता है। न हिन्दु, न मुस्लिम, न सिख, न ईसाई, न बौद्ध समाज – किसी में ऐसा त्यौहार तिथि परिवर्तन नहीं होता है। लगता है आज जैन समाज इतना बिजी हो गया है। सोम से शनिवार तक कोई कार्यक्रम नहीं, अब तो पर्व तिथियां ही महत्वहीन हो गई हैं। उनसे ज्यादा महत्वपूर्ण तो उसके पहले और बाद वाला रविवार हो गया है। इस बारे में कभी चितंन किया है, कि पर्व को उसी तिथि पर मनाना, उसके प्रति सार्थकता या हमारी श्रद्धा का प्रतीक नहीं है क्या।

आज कार्यक्रम में हर कार्य के लिये बोली
हर कार्य के लिये मंच उद्घाटन, चित्र अनावरण, दीप प्रज्ज्वलन, शास्त्र भेंट, पाद प्रक्षालन, आरती, पूजन आज तो सभी बोलियों की नींव पर टिका दिया है, पात्र जितना धनवान, उसको उतना ही ज्यादा पुण्य। क्या यही जैन संस्कृति रही है, धन की नींव पर धर्म टिकने लगा है, जैसे धर्म आज धन की बैसाखी से ही चलता है। ऐसा है नहीं, पर हमने उसे इसी रूप में दिखाना शुरू कर दिया है। अब ज्ञान पुण्यार्जन नहीं, ज्यादा खर्चा, ऊंचा प्रदर्शन होता है।

हम बदले, तो प्रकृति ने भी रूप बदला
आज प्रकृति ने भी यह देख अपना रूप बदल दिया है। वर्षायोग इसलिये कि बरसात से पहले साधु संत किसी नियत जगह ठहर जायें, जिससे जिस धर्म के लिये यह वर्षायेग है, उस अहिंसा का सूक्ष्म रूप में पालन हो सके। अब तो संतों के विहार बारिश में ही होते हैं। यहां तक संतों का जैसे स्थापना के दो दिन पहले तो अन्य जगहों पर विहार और कार्यक्रम चलते रहते हैं। हो सकता है यह पहले भी होता हो, पर अब तकनीक और सोशल मीडिया की बढ़ती लोकप्रियता से अब ज्यादा देखने में आता है। जून और जुलाई के पहले हफ्ते में वर्षा होती है, वहीं सितम्बर अंत और अक्टूबर में नहीं। इस बार 12 जुलाई की आषाढ़ शुक्ल चर्तुदशी से 20 दिन पहले ही वर्षा के 90 फीसदी रूप में होने लगी थी।
पर्व को, उससे संबधित कार्यक्रम को, क्या उसी तिथि पर मनाना सार्थक नहीं, उसको आगे पीछे मनाना क्या उसके महत्व को, गरिमा को, हमारी भक्ति को, श्रद्धा को कम नहीं प्रदर्शित करता। चिंतन कीजिये, मनन कीजिए, क्या दिशा और दशा में भटकाव तो नहीं।

शरद जैन

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