#वर्षायोग में साधु का समागन श्रावक के लिए पुण्य बन्ध का कारण है, इसलिए साधु को साक्षात् तीर्थरूप कहा है #CHATURMAS #VARSHAYOG

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9 जुलाई 2022/ आषाढ़ शुक्ल दशमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
वर्षायोग मुनिचर्या का अनिवार्य अंग- परम्पराचार्य प्रज्ञ सागर मुनिराज

वर्षायोग मुनिचर्या का अनिवार्य अंग और महत्वपूर्ण भी कहा जाता है। श्रमण मुनियों के दस स्थितिकल्पों में अन्तिम पर्युषणाकल्प है, जिसके अनुसार वर्षाकाल में चार महीने एक स्थान में ठहरने का प्रावधान है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भी दसवें कल्प का नाम पज्जोसवणकप्पो है।
वर्षायोग में साधु का समागन श्रावक के लिए पुण्य बन्ध का कारण है। इसलिए शास्त्रों में साधु को साक्षात् तीर्थरूप कहा है। यथा –
साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधव:।
कालेने फलति तीर्थ: सद्य: साधुसमागम:।।

साधुओं के दर्शन मात्र से ही पुण्यबन्ध होता है, साधु तीर्थ रूप हैं। तीर्थ तो समय आने पर फल देते हैं, परन्तु साधुओं की संगति का फल तत्काल प्राप्त होता है।

दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधूनां वन्दनेन च।
न चिरं तिष्ठते पापं, छिद्रहस्ते यथोदकम्।।
(दर्शनपाठ, 2)

जिनेन्द्र देव के दर्शन से और साधुओं की वन्दना से पाप चिर समय तक नहीं ठहरते हैं, जिस प्रकार छिद्र सहित हाथों में जल नहीं ठहरता।

जिस प्रकार चकवा चन्द्रोदय को, कमल सूर्य को और मयूर मेघोदय को प्रिय और हितकारी अनुभव करते हैं, उसी प्रकार श्रावक साधु संघ के वर्षायोग को प्रिय और हितकारी अनुभव करते हैं। श्रमण और श्रावक दोनों के लिए इस वर्षायोग का धार्मिक तथा आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से महत्व है।

वर्षायोग मंगल कलश स्थापना
प्रत्येक मंगल कार्य में आचार्यों ने मंगल कलश स्थापना का वर्णन किया है। अत: चातुर्मास भी एक मंगल कार्य है, यहां तक कि मंगल कलश को आचार्य जिनसेन ने पंचास्तिकाय टीका में अरिहन्त स्वरूप में प्रतिपादित किया है। यथा –

पुण्णा मणोरहेहिं य केवलणाणेण चावि संपुण्ण।
अरिहंता इदि लोए सुमंगलं पुण्णकुंभो दु।।

अरिहन्त जिनेन्द्रदेव सम्पूर्ण मनोरथों से तथा केवलज्ञान से परिवूर्ण हैं। उन अरिहन्त के समान लोक में जल से भरा पूर्ण कुम्भ-कलश उत्तम मंगल के रूप में प्रसिद्ध है।
आचार्य वीरसेन ने षट्खण्डागम की धवल टीका में श्वेत सरसों, कलश, वन्दनमाला आदि को महामंगल कहा है।
यथा –
सिद्धत्थ-पुण्णकुंभो वंदणमाला य मंगलं छत्तं।
सेदो वण्णो आदंसणो य कण्णा च जच्चरसो।

(1/1/ 1/13/28)
सिद्धार्थ अर्थात् श्वेत सरसों, जल से भरा हुआ कलश, वन्दनमाला, छत्र, श्वेत-वर्ण और दर्पण आदि अचित्त मंगल है और बालकन्या तथा उत्तम जाति का घोड़ा आदि सचित्त मंगल है।
जैन दर्शन में पूर्ण कलश मंगल का प्रतीक है और चातुर्मास भी मंगल का प्रतीक है।
मंगल शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है –
मं पापं गालयति इति मंगलम।
मं अर्थात् जो पाप को गलाता है और पुण्य को लाता है वह मंगल है।
हालांकि वर्षायोग में कलश-स्थापना का वर्णन अलग से किसी भी ग्रन्थ में हमारे स्वाध्याय में दृष्टिगोचर नहीं हुआ, फिर भी सम्यग्दृष्टियों को यही करना उचित होगा कि वृद्ध परम्परा का अनुपालन करें। हमारे पूर्ववर्ती आचार्यों ने पंचकल्याणकादि में कलश-स्थापना की विधि-विधान का प्रतिष्ठा पाठों में वर्णन किया है।

महामुनि महावीर और वर्षायोग
विश्वजीवनिकायेषु दयाविततमानस:।
वर्षास्वेकत्र योगेन चातुर्मास्यं जिनोऽवसत्

– पुराणसार संग्रह-वर्धमानचरित, आचार्य दामनन्दि, 5/8
संसार के सभी प्राणियों पर दया से चित्त को व्याप्त कर अर्थात् दयाभाव से वर्षाकाल के चार महीनों में वे (महामुनि महावीर) एक ही जगह योग धारण कर रहते थे।

अकम्पनाचार्य और वर्षायोग
अकम्पनोऽथ योगीन्द्रो योगिभिर्योगजुष्टये।
वर्षायोगं च जग्राह वरयन्मुनिमण्डलीम्।।
-आचार्य शुभचन्द्र, पाण्डवपुराण, 7/54

अकम्पनाचार्य हस्तिनापुर में अपने संघ के साथ आये, वे वर्षायोग के दिन थे। अकम्पन योगीराज ने योगियों के साथ ध्यान सेवन के लिए वर्षायोग धारण किया।

पाण्डव और वर्षायोग
वर्षाकालं समावीक्ष्य पाण्डवास्तत्र संस्थिता:
धर्मध्यानं प्रकुर्वन्त आचतुर्मासकं मृदा।।
क्षणेक्षणे क्षिप्रं कुर्वन्तो मेघकालजम्।
स्वकारिते जिनेशस्य चैत्यवेश्मनि संस्थिता:।।

-आचार्य शुभचन्द्र, पाण्डवपुराण,14/145-146
वर्षाकाल को देखकर चार महीने तक धर्मध्यान करने वाले पाण्डव वहां आनन्द से रहने लगे। वे पाण्डव प्रत्येक पर्वतिथि के दिन वर्षाकाल का उत्सव स्वनिर्मित जिनमन्दिर में करते हुए वहां ठहरे