वर्षायोग क्यों बन गया धर्म साधना से मानसून कलश सेल आफर! क्रेडिट पर चलता सैकड़ों हजारों कलशों का व्यापार!

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॰ पहले स्थापना में कलश नहीं
॰ आचार्य विमल सागर जी ने एक साधारण कलश की करी थी शुरूआत
॰ आज एक नहीं, सैकड़ों कलश रखे व बांटे जाते हैं।
॰ अब वर्षायोग पर कलशों की होती, मानो मानसून सेल, कितना उचित?

14 जुलाई 2022/ श्रावण कृष्ण एकम /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/ EXCLUSIVE
साध्वी दिव्यशक्ति, चारित्र चन्द्रिका गणिनी प्रमुख ज्ञानमती को आ. श्री शांतिसागर जी, आ. श्री वीर सागर जी, आ. शिवसागर जी, आ. धर्मसागर जी आदि सभी के संघों में रहने का जिन्हें अनुभव है। इस बार वे आर्यिका दीक्षा के बाद 67वां वर्षायोग स्थापना करेंगी। उन्हें कभी वर्षायोग स्थापना पर कलश स्थापना करते हुए नहीं देखा। उन्होंने कुछ समय पहले सांध्य महालक्ष्मी से विशेष चर्चा में बताया था कि उन्होंने महान संतों को देखा है, उन्होंने कभी कलश स्थापना नहीं की, लेकिन यह परम्परा कहां से और कब प्रचलित हो गई, पता नहीं। आगम में इसका कहीं वर्णन नहीं मिलता है।

तो फिर यह परम्परा आगम या शास्त्रों के बिना कब शुरू हो गई, 1930-40-50 की जैन पत्र-पत्रिकाओं के कुछ अंक भी देखें, पर किसी में वर्षायोग पर कलश स्थापना का उल्लेख भी नहीं मिला। तब एक बार ध्यान तीर्थ वसंत कुंज में सांध्य महालक्ष्मी से धर्म चर्चा के दौरान आचार्य श्री आनंद सागरजी मौनप्रिय ने इसका खुलासा किया। उन्होंने कहा कि तब कलश क्या होता था, एक लोटा और उस पर रख दिया नारियल, बस यही था कलश। उन्होंने बताया कि उन्हें आचार्य श्री कुंथु सागर जी ने बताया था कि आचार्य श्री विमल सागर जी ने साधु व श्रावक को मिलाने के लिये कलश स्थापना की शरूआत की थी। बस तब उन्होंने लोटे के ऊपर नारियल रख कलश की वर्षायोग के लिये स्थापना की। बस श्रमण-श्रावक के मिलन के रूप में आचार्य श्री विमल सागर जी ने इसकी शुरुआत की, जिसका बदलता स्वरूप वर्तमान में दिखता है।

शास्त्री परिषद के अध्यक्ष डॉ. श्रेयांस कुमार जैन जी ने इसी पर जानकारी दी कि सबसे पहले 1973 में आ. श्री विमल सागरजी ने उ.प्र. में मंगल कलश की स्थापना की थी, जैसे हम लोग पूजा विधान में करते हैं। पर आगम में इसका कोई उल्लेख नहीं है।

वह साधारण लोटा नारियल, अपना स्वरूप पिछले 20-25 वर्षों में काफी तेजी से बदला, चांदी का वैभव आ गया, कलश का आकार रथ के रूप तक पहुंच गया। 6-8 इंच का कलश दो-ढाई फुट तक पहुंच गया। स्थापना के एक कलश की गिनती दो, चार, दस, बीस से सौ के पार हो गई।

क्रेडिट पर चलता सैकड़ों हजारों कलशों का व्यापार!

समझ से परे है, इन सैकड़ों कलशों का वर्षायोग से क्या संबध? फिर इनके लिये ऊंची-ऊंची बोलियां बोली की आज प्रतिस्पर्धा का रूप ले चुकी है। ज्ञान-स्वाध्याय में प्रतिस्पर्धा नहीं होती, पर कहां कितनी ऊंची बोली गई, इसमें भक्तों के साथ अब तो त्यागियों के एक वर्ग भी खूब नजर रखता है। कमेटी का वर्षायोग में अब बड़ा काम केवल बड़े, चौड़े पंडाल लगाना और मानसूनी कलशों की सेल में ही सिमट कर रह गया है। इस खरीद फरोख्त में खूब क्रेडिट चलता है। फिर उन प्रवचनों को सुना जाता है कि मंदिर में दान की घोषणा को जल्द भुगतान करना ही पुण्य अर्जन है। विश्वास कीजिये सांध्य महालक्ष्मी के पास एक बड़े संत के वर्षायोग स्थल से निष्ठापन के 6 माह बाद तक फोन आते रहे कि आपने वहां आकर कलश लेने की घोषणा की थी, पर आपकी राशि नहीं मिली, कृपया अपना कलश ले जाये, या राशि भेज दें। जब उस कार्यक्रम से चार माह क्या, 6 माह पहले या 6 माह बाद तक नहीं गये, पर फोन हर सप्ताह लगातार आते रहे। उन्होंने बताया कि 25 फीसदी कलश का श्रावकों के लिये इंतजार है।

वर्षायोग का 50 साल पहले तक धन से कोई समीकरण नहीं था, फिर धर्म पर धन आज क्यों हावी हो गया? आज वर्षायोग को कलेक्शन योग के रूप में देखा जाने लगा है। कितने खोखे खर्च करने पर कितने खोखे का दर्शन होगा। अब कलशों की राशि भी धन शब्दों नहीं, कलश के रूप में होती है। यानि अमुक संत का मुख्य कलश इतने कलश में गया।

संत की वर्षायोग स्थापना के लिये जरूरी एक कलश या 50-100!
यह समझ से बाहर है कि संत को वर्षायोग स्थापना में सिद्ध भक्ति, योग भक्ति के साथ चैत्य भक्ति बोलते हुए चारों दिशाओं के जिन चैत्यालयों की वंदना, पंच गुरुभक्ति, शांतिभक्ति, समाधि, भक्ति पूर्वक संकल्प करना, दिशा विदिशाओं को जाने की मर्यादा सीमा के साथ लौकिक व्यवहार में मंगल कार्य के लिये कलश स्थापना में एक की बजाय अनेक कलशों की स्थापना या डिस्पले शो, या मानसूनी कलश सेल की व्यवहारिकता क्या है?

तर्क तो है कि कितने ज्यादा कलश होंगे, उतने ही ज्यादा घरों में पुण्य वर्गणायें पहुंचेंगी, पर क्या यही श्रमण की वर्षायोग स्थापना है।

शरद जैन