आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को रात्रि के प्रथम प्रहर में आचार्य एवं साधुओं को वर्षयोग ग्रहण करना चाहिए – पट्टाचार्य श्रुतसागर मुनिराज

0
299

प्रवीन कुमार जैन/7 जुलाई 2022/ आषाढ़ शुक्ल अष्टमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
संसार में प्रत्येक प्राणी संयोग एवं वियोग से जुड़ा हुआ है, जिसका संयोग होता है उसका वियोग अवश्य होता है तथा जिसका उत्थान होता है उसका पतन अवश्य होता है। जो मनुष्य दूसरे के स्नेह, राग, मोह में फंसता है उसको नाना प्रकार के दुखों से संतप्त होना पड़ता है। संयोग और वियोग में जो योग शब्द आया है वह संसार के दु:खों से जुड़ने के अर्थ में प्रयोग होता है।

नीतिकार ने कहा भी है-
‘संयोग वियोगात्मक संसारात् पारंगतो मनयो: परम सुखिन: भवन्न्णिं’
अर्थात् संसार में संयोग एवं वियोग के दु:खों से पार होकर मुनिराज परमसुखी होते हैं। वे वीतराग भाव से संसार की चिंताओं से परे होते हैं अर्थात् परम सुख रूप मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं।

इस प्रक्रिया में आचार्यों ने दस प्रकार के कल्प बताये हैं, वे इस प्रकार हैं-
आचेलक्कुद्देसिय सेज्जाहार राय पिंड किरियम्मे।
वद जेट्ट पडिक्कमणे नासं पज्जोसवण कप्पो।।

– आचार्य शिवकोटि, भगवती आराधना, गाथा 423, पृष्ठ 320
अर्थात् आचेलक्य, औद्दशिक का त्याग, शय्यघर का त्याग, राजपिण्ड का त्याग, कृति कर्म, व्रत, जेण्हता, प्रतिक्रमण, मास, पर्यूषणा से दस कल्प हैं। इन दस कल्पों में जो दसवां पर्यूषणा कल्प है उसका अर्थ वर्षायोग होता है। दिगम्बर मुनिराज वर्षाकाल में चार महीने एक स्थान में रहकर योग साधना करते हैं, उसी को वर्षायोग कहते हैं। वर्षा काल में बारिश एवं नमी के कारण सूक्ष्म एवं स्थूल जीव जन्तुओं का जन्म होता है, अनन्तकाय जीवों के कारण विचरण करना अत्यंत कठिन हो जाता है। अगर किसी कारण विचरण करते हैं तो जीव जन्तुओं की हिंसा होने से महान दोष लगता है। इसीलिए वर्षाकाल में मुनिगण एक स्थान में रहकर योग आराधना एवं साधना करते हैं। इसी को चातुर्मास कहते हैं। परि उपसर्गपूर्वक वस धातु से प्राकृत का पज्जोवसणा शब्द बना है। इसका अर्थ होता है परि अर्थात चारों ओर से संपूर्ण रुप से नियम संयम के योग साधन से वास करना, उपवास करना पर्यूसना कल्प है।

मासे पज्जो शब्द का अर्थ मूलाचार टीका में इस प्रकार किया है-
‘मासो योग ग्रहणात् प्राड्.मासमात्रमस्थानं कृत्वा वर्षा काले योगे ग्राहस्तथा योगं समाप्य मास मात्र मवस्थानं कर्तव्यम्।’
-मूलाचार टीका, गाथा 911, पृष्ठ 120
अर्थात् वर्षायोग ग्रहण करने से पहले एक मास पर्यंत रहकर चार महीने वर्षाकाल में वर्षायोग ग्रहण करना तथा वर्षायोग को समाप्त करके पुन: एक महीने तक रहना चाहिए, ऐसा क्यों करना चाहिए इस बात को स्पष्ट करते हुए मूलाचार टीका में कहते हैं लोगों की स्थिति जानने के लिए और अहिंसादि व्रतों का पालन करने के लिए वर्षायोग से एक महीने पूर्व एवं वर्षायोग के एक महीने बाद तक रहना चाहिए, जिससे श्रावक लोगों को मुनि वियोग का दु:ख नहीं हो।

वर्षायोग का प्रयोजन
‘स्थावर जंगम जीवाकुला हि तदा क्षिति:। तदा भ्रमणे महासंयम: वृष्ट्या शीतवात पातेन चवात्मविराधना। पतेद्वाप्यादिषु स्थाणु कण्ठ कादिभिर्वा प्रच्छतैर्ज्जलेन कर्दमेन वा बध्यते इति।’
अर्थात् वर्षाकाल में पृथ्वी स्थावर और जंगम जीवन से व्याप्त रहती है। उस समय भ्रमण करने से महान असंयम होता है तथा वर्षा और शीत वायु के बहने से आत्मा की विराधना होती है। कुआं आदि में गिरने का डर लगा रहता है, जल आदि में गिरने का भय रहता है अथवा जलादि में छुपे हुए ठूंठ कण्टक आदि अथवा जल, कीचड़ आदि से कष्ट पहुंचता है।
वर्षायोग स्थापना एवं निष्ठापन की अवधि शास्त्रोक्त विधि से वर्षायोग की स्थापना एवं निष्ठापना यथाक्रम से रात्रि के प्रथम प्रहर में एवं अंतिम प्रहर में करने का निर्देश है।

‘‘ततश्चतुर्दशी पूर्वरात्रे सिद्धमुनिस्तुति।
चतुर्दिक्षु परित्योल्पाश्चैत्य भक्ति र्गरुस्ततिम्।।
शांति भक्तिं च कूर्वाणैर्वर्षायोगस्तु गृहाताम्।
ऊर्जकृष्ण चतुर्दश्यां पश्चाद्रात्रौ च मुच्चताम्।।’’
-अनगार धर्मामृत, 9/66-67

आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को रात्रि के प्रथम प्रहर में पूर्व आदि चारों ओर दिशाओं में प्रदक्षिणा क्रम से लघु चैत्य भक्ति चार बार पढ़कर सिद्धभक्ति, योगभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति करते हुए आचार्य एवं साधुओं को वर्षयोग ग्रहण करना चाहिए और कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि के पिछले प्रहर में इसी विधि से वर्षायोग निष्ठापन करना चाहिए अर्थात् वर्षायोग विसर्जन करना चाहिए।