क्यों कहा महावीर स्वामी को लोभी, रागी, महापरिग्रही, महाहिंसक?

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तीनों लोक के स्वामी, जगत परमेश्वर, 24वें तीर्थंकर को क्या कोई कह सकता है लोभी, जिसमें अंश मात्र कल्पना नहीं लोभ की, राग को जिसने जड़ से निर्मूल कर दिया हो, फिर भी रागी, कमंडलु-पिच्छी तक को न रखने वाले फिर भी महापरिग्रही, अहिंसा की दर्पण, फिर भी महाहिंसक, तो हैरानगी तो होगी ही।

फिर भी कहा पूर्वाचार्यों ने तीर्थंकर वर्द्धमान स्वामी को, जिसको स्पष्ट किया श्री महावीर पुराण में आचार्य श्री सकलकीर्ति जी ने।

महान लोभी हैं वर्द्धमान स्वामी क्योंकि तीनों लोकों में उत्तम राज्य हो, इसकी इच्छा रखते हैं। अत्यंत रागी भी हैं क्योंकि मुक्ति रूपणि-स्त्री यानि मोक्ष लक्ष्मी को वरण करने की तीव्र अभिलाषा भी है। अंश मात्र परिग्रह न होने के बावजूद महापरिग्रही भी हैं, क्योंकि सम्यक दर्शन – ज्ञान – चारित्र रूपी अतुलनीय-अनमोल रत्नत्रयों का आपने पूर्ण संग्रह किया है।

अहिंसा का उद्घोष कर, उस पथ पर चलने वाले आप महाहिंसक भी हैं, क्योंकि आपने ज्ञान-दर्शनार्थ कर्म रूपी शत्रुओं का मर्दन कर दिया, नष्ट कर दिया।

अगर यही लोभी, रागी, महापरिग्रही, महाहिंसक की जगत में परिभाषा हो जाये, तो हे स्वामी हर कोई इन चारों को ग्रहण अपने जीवन को धन्य कर लेगा, 84 लाख योनियों के कुचक्र से निकल जाएगा, जन्म-मृत्यु के भंवर से उठ जाएगा। जय हो वर्द्धमान स्वामी की, जय… जय… जय…।