पहले महावीर की भाषा और शैली को सीखें- भगवान् महावीर ने जो सबसे बड़ी क्रांति की थी वह थी उनकी संवाद शैली

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हम भगवान् महावीर को जानना समझना चाहते हैं किन्तु जब तक हम उनकी भाषा और शैली को नहीं समझेंगे तब तक क्या हम उनके उपदेशों को सही अर्थों में समझ पाएंगे ? भगवान् महावीर ने जो सबसे बड़ी क्रांति की थी वह थी उनकी संवाद शैली | जिस अतीन्द्रिय ज्ञान के माध्यम से उन्होंने आत्मा के सत्य के बहुआयामी स्वरुप को जान लिया था उसे व्याख्यायित करते समय उनके सामने दो समस्याए थीं एक तो सभी लोग संस्कृत नहीं जानते थे और दूसरा इन्द्रिय ,वाणी और शब्दों की सीमित शक्ति वस्तु के परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले बहु आयामी स्वरुप को यथावत् अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं थी |

इसके समाधान के लिए उन्होंने सबसे पहले उस समय पूरे भारत की जनभाषा प्राकृत में प्रवचन देना प्रारंभ किया – ‘भगवं च अद्धमागिए भासाए धम्मं आइक्ख’ |उस समय प्राकृतभाषा अनेक रूपों में प्रचलित भाषा थी बाद में सम्राट अशोक ने भी अपने अनेक शिलालेख प्राकृत भाषा में ही लिखवाए |कालिदास,शूद्रक आदि ने अपने नाटकों में प्राकृत भाषा का प्रयोग किया | भाषा वैज्ञानिक इसीलिए भारत की अधिकांश भाषाओँ की जननी प्राकृत भाषा को मानते हैं ,अपभ्रंश और उसके बाद हिंदी का विकास भी इसी क्रम में हुआ है | इसलिए यदि भगवान् महावीर का दर्शन हमें वास्तविक रूप में समझना है तो हमें मूल प्राकृत आगमों को पढना पढ़ेगा और उसके लिए प्राकृत भाषा को सीखना ही पढ़ेगा |

एक ही सत्य के अनेक विरोधी स्वरुप को वाणी के माध्यम से समझने समझाने के लिए उन्होंने ‘स्याद्वाद’ की शैली का आविष्कार किया | यह अद्भुत शैली थी | यहाँ स्यात् पद जो कि मूल प्राकृत में ‘सिय’ शब्द है उसका अर्थ है- ‘कथंचित’ अर्थात् किसी अपेक्षा से , वाद शब्द का अर्थ कथन होता है अतः स्याद्वाद का अर्थ है किसी अपेक्षा से कथन | यह शैली इसलिए अपनाई क्यों कि हम जब भी कोई कथन करते हैं तो सापेक्ष कथन करते हैं ,सर्वथा कथन नहीं करते हैं | महावीर कहते हैं कि एक समय में अनंत धर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म को ही हम वाणी के द्वारा कह सकते हैं तब श्रोता कैसे समझेगा कि वस्तु में अन्य धर्मों की भी सत्ता है ? और हमें यह भी निश्चित करना है कि कोई कथन करते समय हम अन्य धर्मों को गौण कर रहे हैं या उनका निषेध ही कर दे रहे हैं ? महावीर कहते हैं कि यदि किसी कथन के पहले हम स्यात् पद लगा दें तो श्रोता समझ जायेगा कि अभी वस्तु का एक धर्म समझाया जा रहा है लेकिन अन्यधर्म भी हैं उनका निषेध नहीं हैं | महावीर कहते हैं कि आप यदि अपनी भाषा में ‘ही’ की जगह ‘भी’ का प्रयोग करें तो संघर्ष रहेगा है नहीं | जैसे आप कहें कि मेरा संप्रदाय ‘भी’ अच्छा है तो कभी किसी को कोई परेशानी नहीं है किन्तु जब आप यह कहते हैं कि मेरा सम्प्रदाय ‘ही’ अच्छा है तो इतर संप्रदाय को बुरा लगता है और संघर्ष होना शुरू हो जाता है | सिर्फ भाषा के अंतर से अभिप्राय का अंतर आ जाता है |उन्होंने निश्चय नय और व्यवहार नय के माध्यम से अध्यात्म और व्यवहार जगत के मध्य अभूतपूर्व सेतु बनाया और सभी समस्यायों का समाधान भी किया ।

हमारी भाषा में भी अहिंसक शैली होनी चाहिए,महावीर कहते हैं कि यदि ‘सब्जी काट दो’ की जगह अगर आप ‘सब्जी बना दो’ कहें तो ज्यादा उपयुक्त होगा | भगवान् महावीर ने साधना के क्षेत्र में भाषा को लेकर बहुत प्रयोग किये | उनकी योगविद्या की प्रमुख साधना थी-‘वचन योग गुप्ति’ | प्रथम तो साधक को मौन रहना चाहिए और अगर बोलना ही पड़े तो ‘भाषा समिति‘ पालना चाहिए अर्थात कम बोलना चाहिए और मात्र हित,मित,प्रिय वचनों का प्रयोग करना चाहिए |बोलते समय स्याद्वाद की शैली का प्रयोग करना चाहिए ताकि सत्य धर्म की विराधना न हो |

भगवान् महावीर को समझे बिना भारतीय संस्कृति को हम पूर्ण रूप से नहीं समझ सकते अतः उन्हें समझने के लिए हमें प्राकृत भाषा और स्याद्वाद सिद्धांत सीखना ही होगा | सहिष्णुता बिना स्याद्वाद के नहीं आ पाएगी | वास्तव में स्याद्वाद सहिष्णुता ,सह-अस्तित्व और साधना का एक सशक्त माध्यम है | स्याद्वाद के बिना भगवान् महावीर की देशना को सही अर्थों में समझना असंभव है |

प्रो.डॉ अनेकांत कुमार जैन,नई दिल्ली