दान से इंसान का नसीब सुनता है पूण्य का संचय होता है, दान का कण वह पारस मणि है जो लोहे को भी सोना बना देती है :आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी

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उत्तम त्याग धर्म
दान देने से पुण्य का संचय होता है दान के समय उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धि भावना हो तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है

कई गतियों का त्याग किया गया तब यह मानुष तन पाया
धन वैभव ऐश्वर्य प्राप्त कर विनश गई हैयह काया
सारे वैभव मिलेपुण्य से पुरुषार्थ करू देकर दान
जिसने जितना त्याग किया उसने अनुपम सुख को पाया है

भगवान महावीर ने कहा है त्याग धर्म है भोग अधर्म है जिस व्यक्ति के जीवन में भोगो का बाहुल्य रहता है और त्याग वर्ती की न्यूनता रहती है वह व्यक्ति अपने जीवन में सुख का अनुभव नहीं कर सकता
मनुष्य मान को त्याग कर देने पर प्रिय होता है क्रोध को त्याग देने पर शोक नहीं करता काम को त्यागकर अर्थवान हो जाता है और लोभ को त्यागने पर सुखी हो जाता है वास्तव में त्याग में ही जीवन है त्यागी सभी को समभाव से देखता है सभी की सेवा में लगा रहता है

तत्वार्थ सूत्र में तप के बाद क्रम आता है त्याग का
मुख्यतः आसक्ति या मोह का त्याग सबसे उत्कृष्ट और मुश्किल त्याग है त्याग से शांति मिलती है यह मनोविज्ञान सम्मत सत्य है जो जीव पर द्रव्यों के मोह को छोड़ कर संसार शरीर और भोगों से उदासीन परिणाम रखता है उसके त्याग धर्म होता है
भगवन त्याग किसे कहते हैं संयमके योग्य ज्ञानादि का दान करना त्याग कहलाता है अर्थात रत्नत्रय का दान करना
मिष्ट भोजन को राग द्वेष को उत्पन्न करने वाले उपकरण को तथा ममत्व भाव के उत्पन्न होने में निमित वसतिका को छोड़ देता है उस मुनि के उत्तम त्याग धर्म होता है

पूजन में पंक्तियां आती है दान चार प्रकार चार संघ को दीजिए, मनुष्य का जीवन मंत्र दान है दान का कण वह पारस मणि है जो लोहे को भी सोना बना देती है ,महानुभाव दान करने का आग्रह क्यों किया गया है इसलिए कि दान से इंसान का नसीब सुनता है पूण्य का संचय होता है दान के वक्त अगर उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धि है तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी देखा जाता है
आचार्य कहते हैं चार प्रकार का दान होता है आहार दान शास्त्र दान अभय दान औषध दान पहला आहार दान देते समय दिखाई देता है जिसके भीतर सम्यक्त्व की भावना होती है

जिनसेनाचार्य कहते हैं राजा श्री वेग मैंने परम भक्ति से विधि पूर्वक अर्क कीर्ति और अमित गति नाम के दो चारण रिद्धि धारी मुनियों को आहार दान किया उसके फल स्वरुप पर भोग भूमि गए एवं परंपरा से श्री शांतिनाथ तीर्थंकर हुए
दो शास्त्र दान ज्ञान के समान दूसरा कोई दान नहीं होता मनुष्य जन्म तो ज्ञान से ही पूज्य है आज का ज्ञान दान कल के केवल ज्ञान में बदल जाता है

तीसरा अभय दान वसतिका दान अर्थात आवास दान बिहार के समय साधुओं की रक्षा करना
चौथा। औषध दान। रोगों को दूर करने के लिए प्रासुक औषधियों का दान श्रेष्ठ है क्योंकि रोग से यम नियम संयम बिगड़ जाते हैं निरोगी द्वारा ही तप व्रत संयम ध्यान आदि कार्य संपादित किए जा सकते हैं
द्वारिका में श्री कृष्ण एक मुनिराज को औषधी दान दिया है जिसके प्रभाव से उन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया

राजेश पंचोलिया इंदौर