माता त्रिशला को पता चला कि वर्द्धमान तो चन्द्रमा सी खिलखिलाती यौवनावस्था में महल छोड़कर जा रहा है।
जिसकी सेवा में हर समय देव लगे रहते, खाना-पीना-पहनावा सबकुछ वो ही कर रहे हों, अपनी कोमल हथेलियों पर मानो सहज कर सब रखा हो, रक्षा में खड़े हो, वो वर्द्धमान अब सबकुछ छोड़, संन्यास की ओर बढ़ रहा है।
भूल गई कि मैंने तीर्थंकर को जन्म दिया, याद नहीं रहा कि यह तो तीनों लोकों का नाथ है, प्यार में पगला गई कि उनका विश्व का कल्याण करने का समय आ गया है। जिन माता को विलाप करते देख जहां वर्द्धमान मुस्करा रहे थे, और मां के आंसू जैसे घनघोर वर्षा को भी फीका करते जा रहे थे।
पुत्र वियोग में त्रिशला माता कोमल बेल के समान मुरझाते हुए मूर्छित होती जा रही थी। विलाप करते मां के होठों से टूटते शब्दों से यही झलक रहा था – हे प्रभु! तू तो मुक्ति से प्रेम करने को आतुर हो रहा है, पर मेरा प्रेम तो बिछुड़ जाएगा।
तू लोक के लिए जिएगा, मैं किसके लिए जिऊंगी? कंपकंपाती ठण्ड में तुझे संभाल कर रखा, अब दिगम्बर तन से जंगल में कैसे शीत सहन करेगा?
गर्मी की तपन में चंवर ढुलते थे, अब सूरज की तपन कैसे सहन करेगा? तेरे कदमों में मुलायम सेज सजाते थे, अब नुकीले पत्थरों पर विचरण? राजमहलों में रहने वाला अब गुफा, कन्दरा, खुले गगन के नीचे कैसे रहेगा? अंगरक्षकों के सुरक्षा चक्र में रहने वाला, खतरनाक जंगली जीवों के बीच, आह, पुत्र
मां मोह में विलाप करती, पुत्र उतना ही मोह रहित होता मंद-मंद मुस्कराता जाता। अब महत्तर देव से नहीं रहा गया, वह मां को सांत्वना देते बोल पड़े – हे महादेवी! त्रिलोकी नाथ को नहीं पहचानती?
ये जगदगुरु, तीनों लोकों के नाथ, अब अपने साथ भव्य जीवों का भी उद्धार करेंगे। अब ये मोहरूपी अन्धकूप में नहीं गिरेंगे, फिर पाप रूप शोक क्यों? जो गर्भ के समय देवियों को ज्ञान देती है, वो अब वियोग क्यों कर रही है? ऐसे शब्दों को सुन जैसे जिनमाता गहन मोह निद्रा से जाग गई।
वह जान गई मां तो मां होती है, पर सूरज को जनने वाली एक पूर्व दिशा की भांति तीर्थंकर को जनने वाली मां का सौभाग्य एक ही को मिलता है। इतनी सौभाग्यवती होने के बावजूद अपने को कोस रही हूं। हां, मैं तो एक की मां हूं, पर यह तीनों लोकों का नाथ है।
और फिर मां ने तीर्थंकर बनने की राह पर चलने वाले वर्द्धमान को गदगद होकर प्रणाम किया, जो पालकी की ओर बढ़ते जा रहे थे। धन्य है मां, महाधन्य है जिनमाता।