जैसे-जैसे गर्भवती माता त्रिशला देवी का नौवा मास निकट आता गया, उनकी बुद्धि अति प्रखर होती गई और हो भी क्यों नहीं, उनके गर्भ में तीर्थंकर का जीव वृद्धि को प्राप्त हो रहा था। सभी शंकाओं, प्रश्नों के उत्तर माताश्री ने गर्भस्थ शिशु के प्रभाव से दिये। निर्मल बुद्धि मां की और गर्भ में तीन ज्ञान के धारक तीर्थंकर का जीव, उस ज्ञान पुंज से इन प्रश्नों का उत्तर अगर हमने जान लिया, और उसको समझ कर आचरण उसी अनुरूप कर लिया, तो समझ लीजिए इस जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग कर लिया। देवियां उनसे गूढ़ अर्थपूर्ण पहेलियां पूछती, जिनके अर्थ आज भी समझने, ध्यान देने व धारण करने योग्य हैं, कुछ उनसे पूछ गये प्रश्नों के उत्तर जानने का प्रयास करते हैं:-
1. देवी – कौन वेरागी, निस्पृही होने पर भी सर्वदा कामिनी की इच्छा रखता है?
माता श्री – परमात्मा, वह नित्य – कामिनी अर्थात् अविनाशी मोक्ष रूपी स्त्री में अनुरागी व उसी की इच्छा रखने वाला होता है।
2. देवी – कौन है जो अदृश्य है, फिर भी देखने योग्य है, स्वभाव से निर्मल होने पर भी देह की रचना का नाशक है, पर महादेव नहीं है?
माता श्री – देवोना यानि देवरूपी मनुष्य अर्हन्त देव।
3. देवी – इहलोक व परलोक में कल्याण करने वाला कौन है?
माता श्री – अर्हन्त देव, जो धर्मतीर्थ के प्रवर्तक हैं, तीनों जगत का कल्याण करने वाले हैं।
4. देवी – गुरुओं में सबसे महान कौन है?
माता श्री- जिनेन्द्र देव – तीनों जगत के गुरु हैं एवं सब अतिशयों से तथा दिव्य अनंत गुणों से सुशोभित हैं।
5. देवी – जगत में किसके वचन श्रेष्ठ एवं प्रमाणिक हैं?
माता श्री – केवल अर्हन्त देव के, वे ही सबको जानने वाले, दुनिया का हित करने वाले, अट्ठारह दोषों से रहित एवं वीतरागी हैं।
6. देवी – जन्म-मरण रूपी विष को दूर करने वाले अमृत समान क्या पान करना चाहिए?
माता – श्री जिनेन्द्र के मुखकमल से निकला हुआ ‘अमृतपान’ पीना चाहिए।
7. देवी – इहलोक में बुद्धिमानों को किसका ध्यान रखना चाहिए, किसका नहीं?
माता श्री – पंच परमेष्ठी का, जैन शास्त्र का एवं आत्मतत्व का – शुक्लरूपी ध्यान और रौद्र रूपी खोटा ध्यान कभी नहीं।
8. देवी – कौन-सा काम करना चाहिए?
माता श्री – जिससे संसार के भोगों का नाश हो, ऐसे अनंत ज्ञान-चारित्र का पालन करना चाहिए, मिथ्यातवादिकों का नहीं।
9. देवी – इस संसार में सज्जनों के साथ जाने वाला कौन है?
माता – सहगामी केवल दयाधर्म है, वही बंधु सब दुखों से रक्षा करने वाला है।
10. देवी – धर्म के लक्षण क्या है एवं कार्य क्या है?
माता श्री : बारह तप (अनशन, स्वाध्याय आदि), रत्नत्रय, अणुव्रत (अहिंसा, सत्य , अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह), शील एवं उत्तम क्षमा आदि लक्षण, ये सब धर्म के कार्य एवं लक्षण हैं।
11. देवी – इहलोक में धर्म का फल क्या है?
माता श्री : तीन लोक के स्वामियों की इन्द्र-धरणेन्द्र – चक्रवर्ती पद रूप सम्पदायें, श्री जिनेन्द्र का अनंत सुख, ये सब धर्म के ही उत्तम फल हैं।
12. देवी – धर्मात्माओं के चिह्न क्या हैं?
माता श्री : शांत स्वभाव, अभिमान न होना एवं रात-दिन शुद्ध आचरणों का पालन – ये धर्मात्माओं की पहचान है।
13. देवी – पाप के चिह्न क्या हैं?
माता श्री : मिथ्यात्वादि, क्रोधादि कषाय, खोटी संगति एवं 6 तरह के अनायतन – ये पाप के चिह्न हैं।
14. देवी – पाप का फल क्या है?
माता श्री : जो अपने को अप्रिय हैं, दुख का कारण एवं दुर्गति कराने वाला, अन्य रोग-क्लेशादि देने वाला है- ऐसे सभी निंदनीय कार्य पाप का फल हैं।
15. देवी – पापी जीवों का पहचान क्या है?
माता श्री : क्रोध आदि कषायों का बहुत होना, दूसरों की निंदा, अपनी प्रशंसा, रौद्रादि खोटे ध्यान का होना – ये सब पापियों के चिह्न हैं।
16. देवी – असली लोभी कौन है?
माता श्री : बुद्धिमान, मोक्ष को चाहने वाला, निर्मल आचरण से तथा कठिन तप से केवल धर्म का सेवन करने वाला भव्य जीव ही असली लोभी है।
17. देवी – इहलोक में विचारशील कौन है?
माता श्री : जो मन में देव-शास्त्र-गुरु का एवं उत्तम धर्म का निर्दोष विचार करता है।
18. देवी – धर्मात्मा कौन है?
माता श्री : जो श्रेष्ठ उत्तम क्षमादि दशलक्षण युक्त धर्म का पालन करता है। श्री जिनेन्द्र देव की आज्ञा का पालन करने वाला ही बुद्धिमान, ज्ञानी एवं व्रती है – वही धर्मात्मा है, दूसरा कोई नहीं।
19. देवी – परलोक जाते समय मार्ग का भोजन क्या है?
माता श्री : दान, पूजा, उपवास, व्रत, शील एवं संयमादि से उपार्जन किया गया, जो निर्मल पुण्य है, वही परलोक के मार्ग का उत्तम भोजन है।
20. देवी – इहलोक में किसका जन्म सफल है?
माता श्री : जिसने मोक्ष-लक्ष्मी के मुख के प्रदाता उत्तम भेद-विज्ञान को पा लिया, उसी का जन्म सफल है, दूसरे का नहीं।
21. देवी – संसार में सुखी कौन है?
माता श्री : जो सब परिग्रहों की उपाधियों से रहित एक ध्यान रूपी अमृत का पान करने वाले वन में रहता है, वही योगी, सुखी है, अन्य कोई नहीं।
22. देवी – संसार में किस वस्तु की चिंता करनी चाहिए?
माता श्री : कर्मरूपी शत्रुओं की नाश करने की एवं मोक्ष लक्ष्मी पाने की चिंता करनी चाहिए, इन्द्रायिदक विषय-सुखों की नहीं।
23. देवी – महान उद्योग किस कार्य की चिंता करनी चाहिए?
माता श्री : मोक्ष देने वाले रत्नत्रय, तप, शुभ योग, सुज्ञानरिकों के पालने में महान यत्न करना चाहिये, धन एकत्रित करने में नहीं, वैसे भी धन तो धर्म से प्राप्त हो ही जाएगा।
24 देवी – मनुष्य का परम मित्र कौन है?
माता श्री : जो तप – दान – व्रतादि रूप – धर्म को आग्रह पूर्वक समझाकर पालन कराये एवं पाप कर्मों को छुड़ावे।
25 देवी – इस संसार में जीवों का शत्रु कौन है?
माता श्री : जो हित करने वाले, तप-दीक्षा-व्रतादिकों का पालन नहीं करने दें, वह दुर्बुद्धि अपना एवं दूसरे का – दोनों का शत्रु है।
26 देवी – प्रशंसा करने योग्य क्या है?
माता श्री : थोड़ा धन होने पर भी, सुपात्र को दान देना, निर्बल शरीर होने पर भी, निष्पाप तप करना, यही प्रशंसनीय है।
27 देवी – पण्डिताई क्या होती है?
माता श्री : शास्त्रों को जानकर, खोटा आचरण जरा भी नहीं करना, अभिमान नहीं करना एवं अन्य पाप की क्रियायें भी नहीं करना।
28 देवी – मूर्खता किसे कहते हैं?
माता श्री : ज्ञान व हित का कारण, निर्दोष तप, धर्म की क्रिया जानकर भी, उसका आचरण न करना।
29 देवी – सबसे बड़ा चोर कौन है?
माता श्री : जो मनुष्यों के धर्मरत्न को चुराने वाले, पाप के कर्ता एवं अनर्थ करने वाले – ऐसे पांच इन्द्रिय रूपी दुर्धर चोर हैं।
30 देवी – संसार में शूरवीर कौन है?
माता श्री : जो धैयरूपी खड्ग से परिषहरूपी महायोद्धाओं को, कषाय रूपी शत्रुओं को तथा काम मोह आदि शत्रुओं को जीतने वाले हों।
31 देवी – सच्चे देव कौन हैं? क्या है उनकी पहचान?
माता श्री : जो सबको जानने वाला, क्षुधादि 18 दोषों से रहित, अनंत गुणों का समुद्र, धर्म का प्रवर्तक हो, ऐसे अहिन्त प्रभु ही सच्चे देव हैं।
32 देवी – महान गुरु कौन हैं, क्या है उनकी पहचान?
माता श्री : जो इस संसार में बाह्य-आभ्यांतर, दोनों प्रकार के परिग्रहों से रहित हों। जगत के भव्य जीवों के हित साधन में उद्यत हों एवं स्वयं भी मोक्ष के लिये इच्छुक हों, वही महान गुरु होता है। मिथ्यामति तो धर्म गुरु हो ही नहीं सकता।
ऐसी उत्कंठा, जिज्ञासा, कौतुहल, शंकाओं का स्पष्ट समाधान जानकर देवियां प्रसन्न हो जाती और आज भी अगर हम इन्हें जानें, समझें, आचरण में उतारने का प्रयास करें, तो हमारा तीर्थंकरों के कल्याणक मनाना सार्थक हो जाएगा।
(स्रोत : श्री महावीर पुराण – आचार्य श्री सकलकीर्तिजी )