तेंदूखेडा़ में चल रहे श्री मज्जिेन्द्र पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव के छठवें दिन यागमंडल विधान, जन्म कल्याणक का विधान और आचार्य भगवान का पूजन किया गया। मुनिश्री प्रशस्त सागर महाराज ने प्रवचनों में कहा कि जिस शरीर के माध्यम से विषयों को भोग कर रहा हूं, उसे भोगने का माध्यम मेरा स्वयं का शरीर है और शरीर के माध्यम हम जितना चाहे भोगों को भोगता है, लेकिन ये शरीर नाशवान है। शाश्वत नहीं है मिटने वाला है। जब माध्यम भी मिटने वाला तो इसके माध्यम से जो भी चीज भोगी जा रही है, वह भी नाशवान है। हम कहते हैं कि हमारी भक्ति हो गई है।
पर ये आत्मा की भक्ति नहीं होती है, आत्मा तो शाश्वत है। उसका न तो जन्म होता है और न ही उसकी मृत्यु होती है। लेकिन आत्म आयुकर्म का वध करके उस गति में उतने समय तक रूकने के लिए जैसे टिकट लेकर आते हैं कि ट्रेन में कहां तक सफर करना है। ऐसे ही आत्मा आयु टिकट लेकर आती है और इस शरीर के अंदर रहकर इस शरीर को छोड़कर चली जाती है। शरीर की मृत्यु हो जाती है, लेकिन आत्मा मरती नहीं है। शरीर की एक आयु है। लेकिन हम इस शरीर को अपना समझ लेते हैं। जैसे किसी मकान को किराए से लेकर रहने लगते हैं।
लंबे समय में उस मकान को अपना मानने लगते हैं। लेकिन मकान को खाली करना पड़ता है। यहीं सांस्कारिक प्राणी की स्थिति है, कि अनंत काल से हम इस शरीर में रह रहे हैं और इस शरीर को अपना मान लेता है। यही हमारी अज्ञानता है। हम इस शरीर में किराए दार हैं तो किराए दार की हैसियत से रहो, जब किराया पूरा हो जाए तो इस शरीर को छोड़कर चलते बनो। ऐसे ही भगवान को समझ में आ गया था कि यह शरीर मुझे छोड़कर जाता है। इस लिए इससे पहले ही शरीर के मकान को खाली करके चला जाता है।
दोपहर में आर्यिका आराध्य मति माता ने कहा कि एक सेठ जी पहुंचते हैं, और अपनी जिज्ञासा काे लेकर निवेदन करते हैं, कि जब भी आप धर्मा उद्देश्य सुनाया करते हैं, तब भी आप लोग यही कहा करते हैं, कि धर्म करना चाहिए। हमारे पास सभी प्रकार की सुख सुविधाएं हैं, कोई भी दुख की सामग्री नहीं है, सब सुख के साधन हैं, फिर भी बार-बार प्रेरित क्यों किया जाता है कि धर्म करना चाहिए, संत ने सोचा कि शब्दों से कहेंगे तो समझ में नहीं आएगा सेठजी को, तो संत ने कहा सामने पालने में दीपक रखा हुआ है, उस दीपक को उठाओ और उसको जला दो, सेठजी ने सुना और दीपक उठाया और उसको जला दिया।
फिर संत ने कहा कि जैसे अभी दीपक नहीं जल रहा था, तो अंधकार था, और जैसे दीपक जलने लगा तो प्रकाश हो गया, वैसे ही अनाती काल से हमारी आत्मा में मोह का अंधकार फैला हुआ है, और उस अंधकार को दूर करने के लिए धर्म रूपी दीपक की आवश्यकता हुआ करती है। सेठ जी को समझ में आ गया कि सुख सुविधाएं अलग हैं, और हमारे जीवन में जब तक मोह का अंधकार रहेगा तब तक हम अपने जीवन में इस ज्ञान को प्राप्त नहीं कर
– दैनिक भास्कर से साभार
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