क्षमा मांगने से पहले एक और गुनाह
19 सितम्बर 2022/ भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी /डॉ निर्मल जैन (से.नि.) जज
तीर्थ-क्षेत्रों के संरक्षण, सुरक्षा को लेकर गली-गली मोहल्ले-मोहल्ले अखिल भारतीय संस्थाएं बनी होने पर भी तीर्थ-क्षेत्र उपेक्षित ही दिख रहे हैं। अराजक तत्वों द्वारा अतिक्रमण किया जाना जारी है। स्थानीय समाज राजनीति का अखाड़ा बन चुकी हैं। उनका हर “पद” अंगद का पद का रूप ले चुका है। वित्तीय लेखा-जोखा की पारदर्शिता क्षितीज के पार चली गयी है। शिथिलाचार चरम पर है, कर्मकांड, आडंबर ने आगम को अपने आवरण से ढक दिया है। धर्म केवल प्रक्रियाओं तक सिमट गया। ह्रदय में भक्ति, श्रद्धा, आस्था सब नेपथ्य में चली गयीं। उनके स्थान पर मंच पर अगली पंक्ति में बैठ गया है- धनवान, प्रचार- प्रसार। सब कुछ धन की तराजू पर तौला जा रहा है। एक धनवंता सौ गुण्वंतों पर भारी पड़ रहा है।
या तो रोना कलपना बंद करें। कुछ बदलना है तो हमें दरबारी, चाटुकार नहीं बनना। हमारी कलम और वाणी को चाहिए महाकवि चंद्रवरदाई। जरूरत, तकली और चरखे की नहीं जरूरत है “मंगल पांडे, खुदीराम और नेता जी सुभाष” जैसे जुझारू संघर्ष पुरुषों की। उच्च पदासीन “नामधारी” सेनापतियों के गुणगान से धरातलके योद्धाओं का मनोबल गिरता है। यह भी तो जरूरी नहीं ऐसे धनपति, प्रभावशाली एक कुशल रणनीतिकार भी हों। भरत जी चक्रवर्ती थे, बाहुबली जी एक सामान्य मानव दोनों ने तप, त्याग किया। लेकिन बाहुबली जी भगवान क्यों कहलाए? यह बताने की जरूरत नहीं। तो अब समय है कि समाज के संघर्ष को धनबल और सामंतशाही से निकाल कर इसकी कमान “ग्राउंड जीरो” पर संघर्ष करने वाले समर्थ, सशक्त योद्धाओं के हाथ में दी जाए। चिरागों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी रातों के सुपुर्द करते-करते हमारे तीर्थ, देवालय, आस्था, जीवन दर्शन सभी खतरे में पड़ गए हैं।
मध्यस्थों को किनारे कर सीधा वीतरागी से नाता जोड़ कर धर्म को धन की दासता से मुक्त किया जाए । धन को साध्य बना लेने से सभी नेतिकता को तिलांजलि दे कर येन-केन-प्रकारेण धन कमाने की दौड़ में जुट गए हैं। धनहीन धर्म से वंचित होता जा रहा है। इसका सीधा असर नई पीढ़ी पर पड़ रहा है। जैनेतर विवाह संबंध बढ़ रहे हैं, घरेलू उत्पीड़न में बढ़ोतरी हो रही है। परिवार टूट रहे हैं। यह सब ऐसे रोने-धोने हैं जिन के कारण बड़े-बड़े समाज सुधारक, प्रबुद्ध-जीवी, पत्रकार बड़े दुखी हो कर भव्य गोष्ठियों में कल्पनाओं के घोड़े दौड़ा कर अथक प्रयास कर रहे हैं।
लेकिन सिर्फ पट्टियाँ धोई जा रही हैं, जख्म के मूल को छूने का साहस किसी में नहीं है। महंगे इटालियन मार्बल की सीढ़ी बनाने मात्र से ही तो शिखर पर नहीं पहुंचा जा सकता। उसके लिए उन पर चढ़कर जाने का पुरुषार्थ भी करना होता है। सुख-सुविधा भोगियों के लिए यह शारीरिक पुरुषार्थ दुरूह है। इसके अतिरिक्त संबंधों में बिगड़ाव न हो, माइक, माला, मंच न छिन जाए। तो कहीं निंदा-भय तो पदवी उपाधियाँ विहीन होने का डर और सर्वोपरि यह आशंका कि कार्य-व्यवहार, लिफाफे ही बंद न हो जाएँ। इसलिए गले में पटका डलवा घोषणाओं की औपचारिकता पूरी कर फिर अपने स्वरूप में आ जाते हैं ।
जनमानस चीतकार कर उठता है-
यक़ीनन रहबर-ए-मंज़िल कहीं पर रास्ता भूले,
वगर्ना क़ाफ़िले के क़ाफ़िले गुम हो नहीं सकते।