6 सितम्बर 2022/ भाद्रपद शुक्ल एकादशी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
बहुत भजन गा लिया, गा-गाकर बजा लिया, रट लिया सुना दिया पर अंदर नहीं उतरा, कागजों को रंग दिया, गिरगिट रूपी जुबान से बोल दिया
#हम_नहीं_दिगम्बर_श्वेताम्बर, तेरापंथ, स्थानकवासी,
हम एक देव के अनुयायी, हम एक देव के विश्वासी।
आप कह सकते हैं, शीर्षक गलत है, जैनों के टूटने का संकेत करता है, एकता पर कुठारघात है, पर क्या यह असलियत नहीं।
आज जैन समाज इतने पंथों, संतों, मंदिरों, स्थानकों में बंटा हुआ है, कि कोई भी उसकी सही गिनती नहीं बता सकता। जब तक कोई जोड़ कर पूरा करेगा, उसमें दो-चार की गिनती और बढ़ जाएगी। अफसोस है कि 44,51,753 लोग जो तीर्थंकर श्री आदिनाथ-महावीर स्वामी के अनुयायी अपने को कहते हैं, पर उनकी मानते कहां हैं?
कड़वा सच तो यह है कि जिनका जिन शासन चल रहा है, उनका 2550वां निर्वाण कल्याणक मनाने से पहले ही हम इतना बंट चुके, (सॉरी अभी बंटना और बाकी है)। अब तो यह भी पहचानना मुश्किल है कि हमारे श्री महावीर स्वामी कौन थे, दिगम्बरों के अनुसार या फिर श्वेताम्बरों के अनुसार। महावीर स्वामी को बाल ब्रह्मचारी, तो जैनों का एक पंथ, उनका विवाह करवा चुका। उन्होंने सर्वस्व परिग्रह छोड़, यहां तक कि तन पर वस्त्र भी त्याग कर दिगम्बरत्व को धारण किया, तभी मोक्ष प्राप्त किया। पर एक वर्ग कपड़ों के साथ मोक्ष को बताने में लगा है। हां! राजा श्रेणिक ने केवल ‘आत्मा’ पर ही साठ हजार प्रश्न कर डाले। पर वर्तमान में ज्ञानियों का बस चले तो वो 60 हजार कारण बता सकते हैं, कि हम एक नहीं अलग-अलग पंथों से हैं।
आंकड़ों की दृष्टि से देखे तो 95 फीसदी को पंथवाद, संतवाद से कोई मतलब नहीं, कोई कह सकता है, वे सब बेपेंदी के लोटे हैं। क्यों? इसलिये कि जैसा संत कहेंगे वे उसी धारा में बह जायेंगे। वैसे तो इस बात पर फक्र होता है कि जैन अनुयायी अपने संतों की मानते हैं। एक बार को महावीर स्वामी की नहीं माने। वैसे भी श्री महावीर जी की पहचान किसने कराई, उन्होंने ही कराई। पर उन्होंने अपने-अपने अनुसार कराई। अपने-अपने रूप से महावीर को बनाया, सजाया और अपना पाठ पढ़ाया।
सांध्य महालक्ष्मी से कहते तो यहां तक है कि एक कैसे हो सकते हैं, वो कपड़े पहन नहीं सकते, हम कपड़े उतार नहीं सकते। एक महावीर स्वामी को वैभव के साथ प्रदर्शित करता है, दूसरा दिगम्बरत्व रूप में, तीसरा उनके रूप को सामने ही नहीं रखता। श्री महावीर स्वामी के जन्म स्थान , जीवन पर भी एक मान्यता नहीं हैं
एक करने की तो दूर की बात है, कुछ तीर्थों पर तो अदालत में आमने-सामने हैं, तो कहीं मूर्तियों को बदलने की प्रथा भी चल निकली है।
पर क्या अलग-अलग प्रथा वाले एक नहीं हो सकते? क्यों नहीं हो सकते? भोजन की थाली ने कभी कहा है कि इसमें दाल है, तो सब्जी मत रखना, चपाती है तो परांठे मत रखना, घी है तो मक्खन नहीं रखना, चीनी है तो नमक नहीं होना चाहिए। साथ मिलकर ही सुस्वाद भोजन की थाली बनती है।
दुल्हन का श्रृंगार तो देखा ही होगा? गले में हार, हाथ में कंगन, माथे पर बिंदिया, पैरों में पायल आई, तभी तो लक्ष्मी लगती है। पर कोई कहे, हार हो तो कंगन नहीं, नथनी हो तो पायल नहीं, पर जब ये सब एक साथ हो कर श्रृंगार कहलाता है तो विभिन्न मतों को मानने वाले जैन क्यों एक नहीं हो सकते।
विश्वास कीजिए, सांध्य महालक्ष्मी ने पिछले कुछ वर्षों में 100 से ज्यादा विभिन्न मतों के प्रमुख संतों से जैनों के एक होने पर चर्चा की है। ऐसे एक भी नहीं मिले जो नहीं चाहते हैं। पर ऐसे भी कोई नहीं रहे जो झुककर सामने वाले को गले लगाने को आगे खड़े दिखाई दिये हों। यदा कदा मंच पर जब एकसाथ आते हैं, तो तालियां तो बहुत मिलती हैं, मंच से उतरकर वो सब भुला दिया जाता है।
क्या कारण है मान या अभिमान। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने सही कहा कि स्वीकारों हम बहुत टेढे हैं। पर इस बात को माने कौन? मैं सीधा और सामने वाला टेढ़ा है, आज अगर केवल संत एक मत हो जाये तो अगले ही क्षण जैन समाज एक हो जायेगा और उसकी ताकत, वजन, आवाज कई गुना बढ़ जायेगी। राजनीति हो या सामाजिक गतिविधियां, वो फिर जैनों की अगुलियों पर चलेगी।
आज अनेकांत की कट्टरवाद में बदल दिया गया। जैन धर्म के सिद्धांतों को अपने-अपने शब्दों में पिरोकर अर्थ का अनर्थ किया जा रहा है। प्राचीन गं्रथों की टीका करते हुये भी अपने पंथ की पुष्टता की चाशनी में उसे घोलकर परोसा जाता है।
95 फीसदी तैयार, पर पांच फीसदी नहीं। न ही वे अगुवाई करना चाहते है और ना ही मिल बैठकर हल निकालने की कोई कोशिश करना चहाते।
नहीं करना दूसरे की परम्पराओं में बदलाव, नहीं डालो अपनी बातों की स्वीकृति का दवाब। एक बार प्रयास तो करें, कहीं से शुरुआत तो करें। चंद बार मंचों पर एक साथ बैठने से एक नहीं होंगे, मन मिलने होंगे, विचारों में अनेकता में एकता का स्पंदन पैदा करना होगा, बदलने-लड़ने की चल रही घटनाओं पर विराम लगाना होगा। हर को इस यज्ञ में आहूति देनी होगी। जितने बड़े संत उतनी ज्यादा उनकी पहुंच और उसकी शुरुआत मिलकर करनी होगी।
फिर देश नहीं विदेशों में भी जैनों को बड़ा सम्मान मिलेगा, जो आज से 2500 वर्ष पहले मिलता था। आज छोटे में विधायक, बड़े कार्यक्रम में सांसद और थोड़े बड़े में मंत्री का बुलवाकर पीठ थपथपाने वाले यह भी जानते हैं कि देश के प्रधानमंत्री और बड़े नेता अन्य सम्प्रदाय के मंदिरों में जाते हैं पर हमारे मंदिरों में लगभग नगण्य । हों गुरु ओं के पास तो जाते हैं, क्यों कि उनका मानना है कि इनके आशीर्वाद में आज भी ऊर्जा है।
क्या होना चाहते हैं एक? हां, हां, हां, हां सब कहते हैं पर क्या झुकना चहाते हैं, (अब चुप्पी, एक गहन चुप्पी) इसीलिये कहना पड़ता है कि
मत कहो हमें जैन या एक देव के वासी,
हम तो हैं, दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी
आपको अप्रिय लगा हो तो हृदय से क्षमा!
– शरद जैन –
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यह पूरा लेख तथा और भी अनेक चिंतन हेतु लेख 36 पृष्ठीय सांध्य महालक्ष्मी के कलरफुल क्षमावाणी अंक 2022 में पढ़िए
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