20 वर्ष के कठोर तप के लिए कैसे चले थे, आज ही के दिन दूसरे तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ जी तप की ओर

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29अप्रैल 2023/ बैसाख शुक्ल नवमी/चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/

केवल 4 तीर्थंकर ही हैं जिनके जन्म और तप कल्याणक अलग-अलग दिन होते हैं । संभव नाथ जी, सुमति नाथ जी , अरनाथ जी और महावीर स्वामी । इनमें पांच वे तीर्थंकर, श्री सुमतिनाथ जी का तप कल्याणक आ रहा है, वैशाख शुक्ल नवमी यानी 10 मई को। जाति स्मरण से आपकी वैराग्य भावना बलवती हुई और फिर अयोध्या नगरी के सहेतुक वन में, पूर्वाहन काल में , आप 1000 राजाओं के साथ तप को चल दिए। पंचमुष्टि केशलोंच के बाद , आपने 20 वर्षों का कठोर तप किया।

विश्वबंधु तीर्थंकर श्री सुमतिनाथजी के जन्म से महापवित्र अयोध्या नाम की नगरी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में है।जब सुमतिनाथ के कुमारकाल के दश लाख पूर्व व्यतीत हो गये,तब पिता अयोध्यानरेश श्री मेघरथ उन्हें अयोध्या का राज्य-भार सौंप कर स्वयं दीक्षित हो गये।भगवान सुमतिनाथ ने राज्य को इतना व्यवस्थित बनाया कि उनका कोई भी शत्रु नही रहा था।उनके राज्य में हिंसा, झूठ,चोरी, व्यभिचार आदि पाप देखने को नहीं मिलते थे। उन्हें निरंतर प्रजा के हित का ध्यान रहता था। वे कभी ऐसे नियम नहीं बनाते थे, जिनसे कि प्रजा दुःखी हो।महाराज मेघरथ दीक्षित होने के पहले ही सुमतिनाथ का विवाह योग्य कुलीन कन्याओं के साथ करा गये थे। सुमतिनाथ उन नारी-देवियों के साथ अनेक सुख भोगते हुए अपना समय व्यतीत करते थे।

इस तरह राज्य करते हुए जब उनके उन्नीस लाख पूर्व और बारह पूर्वांग बीत चुके, तब एक दिन किसी कारणवश उनका चित्त विषय-वासनाओं से विरक्त हो गया। उन्हें संसार के भोग विरस और दुःखप्रद मालूम होने लगे।उन्होंने सोचा कि अगणित विषय-सुखों को भोगते हुए भी प्राणियों को तृप्ति नहीं मिलती। विषयाभिलाषायें मनुष्य को आत्म-हित की ओर अग्रेसर नहीं होने देती हैं। इन विषय-वासनाओं को तिलांजलि दे कर आत्म-हित करना होगा।

जब भगवान सुमतिनाथ विरक्त मन से विचार कर रहे थे,तब आसन कांपने से लौकांतिक देवों को सुमतिनाथ के वैराग्य का ज्ञान हो गया और वे सुमतिनाथ के पास आ कर उनके वैराग्य को बढ़ाने लगे। जब भगवान सुमतिनाथ का हृदय पूर्ण रूप से विरक्त हो गया, तब लौकांतिक देव अपनी-अपनी जगह पर वापिस चले गये। बाद में असंख्य देवों ने आकर वैराग्य-महोत्सव मनाया।पहिले जिन देवियों का संगीत,नृत्य,अन्य चेष्टाएं राग बढ़ाती थी, उन्हीं देवियों की समस्त चेष्टाएं वैराग्य बढ़ा रहीं थी।

भगवान सुमतिनाथ पुत्र को राज्य देकर देव-निर्मित ‘अभया’ पालकी पर बैठे। देवलोग पालकी को अयोध्या के समीपवर्ती सहेतुक नामक वन में ले गये।वहां भगवान सुमतिनाथ ने नर-सुर की साक्षी में जगद्वन्द्य सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर वैशाख शुक्ल नवमी के दिन मध्याह्न के समय मघा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली। वे तीन दिन के उपवास की प्रतिज्ञा कर लगातार तीन दिन तक ध्यानमग्न हो कर एक आसन से बैठे रहे। ध्यान के प्रताप से उनकी विशुध्दता उत्तरोत्तर बढ़ती गई और उन्हें चौथा मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हुआ। तीन दिन समाप्त होने पर वे मध्याह्न के आहार के लिये सौमनस नगर में गये। वहां राजा द्युम्नद्युति ने उन्हें पड़गाह कर समयानुकूल योग्य आहार दिया। पात्र-दान के प्रभाव से राजा द्युम्नद्युति के घर देवों ने पंचाश्चर्य प्रकट किये। भगवान सुमतिनाथ आहार ले कर वन को वापिस लौट आये और फिर आत्म-ध्यान में लीन हो गये। थोड़े-थोड़े दिनों के अंतराल से आहार ले कर कठिन तपश्चर्या करते हुए जब बीस वर्ष बीत गये, तब भगवान सुमतिनाथ को लोक- अलोक को प्रकाशित करनेवाला ‘केवलज्ञान’ प्राप्त हुआ।