आत्महत्या। एक डरावना शब्द। एक शब्द, जो आँखों के सामने मौत का भयावह मंजर खड़ा कर देता है। कहने को इसके अर्थ मनचाही मौत से जुड़ते हैं लेकिन सच यह है कि यह एक अनचाही और अनपेक्षित मौत की दर्दनाक स्थिति है। एक हँसते-खेलते जीवन का त्रासद अंत। फाँसी, ज़हर, आग और नदी जैसे कितने ही नए-पुराने तरीके मौत को गले लगाने के लिए आजमाएँ जा रहे हैं।
दो घटनाओं ने झकझोरा जैन समाज को
पहली घटना से मन स्तब्ध है कि सोमिल जैन ललितपुर जिसमे बहुत छोटी सी उम्र में यूट्यूब के माध्यम से धर्म की बेहतरीन प्रभावना की , साधु सेवा में अग्रणी ओर अचानक शनिवार शाम को जीवन की लीला समाप्त कर देता है।
शनिवार से एक दिन पूर्व भी 28 जनवरी को देर शाम उन्होंने एक चैनल महालक्ष्मी से फोन पर कहा था कि ललितपुर जैन पंचायत द्वारा जारी किए गए पत्र में विनोद कामरा जी के खिलाफ जो लिखा गया है , वह पूरी तरह सत्य नहीं है । उन्होंने चैनल महालक्ष्मी से अनुरोध किया था कि इस पर दोनों पक्षों से बात कर जरूर समाज हित में सभी के पास जानकारी दें और अगले ही दिन हमें यह सूचना मिल गई कि सोमिल जीवन की लीला समाप्त कर देता है। संतो के प्रति अगाध श्रद्धा के लिए वह छोटी सी उम्र में ही लोकप्रिय हो गए थे।
तो दूसरी घटना गैरतगंज निवासी ओर भोपाल प्रवासी जलज जैन की है जिनकी उम्र मात्र 23 वर्ष के आसपास थी , अति सम्पन्न परिवार घर पर किसी भी प्रकार की कोई कमी नही , चंद रोज पहले ही बाइक का शोरूम खोला था पर पता नही अचानक क्या होता है और वह युवा अपने आप को गोली मारकर कर खत्म कर देता है ।
दोनों घटना की पीछे कारण क्या थे , क्यों हुआ , क्या हुआ इसकी मैं चर्चा नही करना चाहता ना कर रहा हूँ पर एक बात है कि इस दोनो घटनाएं सुनी मन दुखी भी है और थोड़ा आक्रोशित भी पता नही लोग इस जीवन को क्यों इतनी आसानी से गंवा देते है। कितनी दुर्लभता से मिलती है ये मानव पर्याय फिर उसे यूँ ही गंवा देना कहाँ तक उचित है?
संसार में समस्याएं है तो समाधान भी है । कौन है दुनिया मे जिसके पास समस्या नही है पर समस्या से डरकर इस तरह आत्महत्या के मार्ग को चुनना कभी सही नही हो सकता है। इधर की थोड़ी परेशानी से डरकर इधर से तो भाग गए पर उन परिवारों पर क्या गुजर रही होगी जिंन्होने अपना लाल खोया है। जिन्होंने अपना सबकुछ खोया है।
सहनशक्ति नहीं बची :
भारतीय मानस पहले इतना कमजोर कभी नहीं था जितना अब दिखाई पड़ रहा है। कम सुविधा व सीमित संसाधन में भी संतोष और सुख से रहने का गुण इस देश की संस्कृति में रचा-बसा है है। इसका सबसे बड़ा आधार हमारी आध्यात्मिकता रही है। आम भारतीय की सोच ईश्वर में विश्वास कर हर परिस्थिति में हिम्मत और धैर्य रखने की है। जैसे-जैसे ‘लक्जरी’ ने जरूरतों का रूप धारण आरंभ किया है। आर्थिक उदारीकरण और टेक्नोलॉजी ने चारों दिशाओं में पंख पसारे हैं, वैसे-वैसे तेजी से एक साथ सब कुछ हासिल करने की लालसा भी तीव्रतर हुई है।
साधन और सुविधा पर सबका समान हक है मगर उस हक को पाने में क्यों कुछ लोगों को सब कुछ दाँव पर लगा देना पड़ता है और क्यों कुछ लोगों के लिए वह मात्र इशारों पर हाजिर है। जीवन स्तर की यह असमानता ही सोच और व्यक्तित्व को कुंठित बना रही है।
जबकि सोच की दिशा यह होना चाहिए कि मेहनत और लगन से सब कुछ हासिल करना संभव है बशर्ते धैर्य बना रहे। लेकिन विडंबना यह है कि समय के साथ सहनशक्ति और समझदारी विलुप्त हो रही है।
सामाजिक-पारिवारिक संरचना ध्वस्त
बदलते दौर में टीवी-संस्कृति ने परस्पर संवाद को कमतर किया है। परिणाम-स्वरूप माता-पिता के पास बच्चों से बात करने का समय नहीं बचा है। यह स्थिति दोनों तरफ है। आज का किशोर और युवा भी व्यस्तता से त्रस्त है। कंप्यूटर-टीवी ने खेल संस्कृति को डसा है। आउटडोर गेम्स के नाम पर बस क्रिकेट बचा है। टीम भावना विकसित करने वाले, शरीर में स्फूर्ति प्रदान करने वाले और खुशी-उत्साह बढ़ाने वाले खेल अब विलुप्त हो रहे हैं।
यही वजह है कि ना बाहरी रिश्तों में सुकून है ना घर के रिश्तों में शांति। दोस्ती व संबंधों का सुगठित ताना-बाना अब उलझता नजर आ रहा है। कल तक जो संबल और सहारा हुआ करते थे आज वे बोझ और बेमानी लगने लगे हैं।
युवा, क्यों है बिखरा हुआ
देश की युवा शक्ति आज के हाँफते-भागते दौर में अस्त-व्यस्त-त्रस्त है या फिर अपनी ही दुनिया में मस्त है। आत्मकेन्द्रित युवा अपने सिवा किसी को देख ही नहीं रहा है। जब उसे पता ही नहीं है कि दुनिया में उससे अधिक दुखी और लाचार भी हैं तब वह अपने दुख-तकलीफों को ही बहुत बड़ा मान लेता है। घर आने पर कोई उससे यह पूछने वाला नहीं है कि उसके भीतर क्या चल रहा है। हर कोई टीवी के कार्यक्रमों के अनुसार अपनी दिनचर्या निर्धारित करने में लगा है। किसे फुरसत अपने ही आसपास टूटते-बिखरते अपने ही घर के युवाओं को जानने-समझने की। उनकी भावनात्मक जरूरतों और वैचारिक दिशाओं की जाँच-पड़ताल करने की?
एक दिन जब वह आत्मघाती कदम उठा लेता है तब पता चलता है कि ऊपर से शांत और समझदार दिखने वाला युवा भीतर कितना आँधी-तूफान लिए जी रहा था। वास्तव में माता-पिता को समय के साथ बदलना होगा।
– अविनाश जैन