श्रमण परम्परा में किसी भी प्रकार की शिथिलता नहीं चलती,तुम्हारे वचनो में , उठो बेठो चलो फिरो तो श्रमणता झलकना चाहिए: मुनि पुगंव श्री सुधासागरजी

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भव्य समारोह में की चातुर्मास कलश की स्थापना

जीवों की रक्षा करने के लिए रूक जाते हैं संत-सुधासागरजी

चाँद खेड़ी, परम पूज्य संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्या सागर जी महाराज के परम प्रभाव शिष्य आध्यात्मिक संत निर्यापक श्रमण मुनि पुगंव श्री सुधासागरजी महाराज ससंघ के मंगल चातुर्मास की स्थपना कलश की स्थापना चाँद खेड़ी में हुई। भक्तों की तालियो चाँद खेड़ी वाले बड़े बाबा भगवान आदि नाथ स्वामी की जय कारो के साथ प्रतिष्ठा चार्य प्रदीप भइया के मंत्रोचार के वीच ब्रह्मचारी महावीर भइया दारा कलशो की स्थापना कराई गई।

विदेश से आए भक्तों ने की कलश स्थापना
पहली बार विदेशों में बैठे भक्तों ने महावीर भइया के माध्यम से मंगल कलश स्थापित करने का सौभाग्य प्राप्त कर ब्रह्मचारी महावीर भइया सुकात भाइया कल्पेशजी सूरत विनोद छावड़ा के द्वारा कलशो की स्थापना कराई

स्थापना समारोह देशभर से पहुँचे भक्त
कई वर्षों कि भक्ति और निरन्तर प्रयास के बाद चाँद खेड़ी कमेटी के अध्यक्ष हुकम काका व कमेटी के प्रयास के बाद वर्षावास करने का सौभाग्य मिला चातुर्मास स्थापना समारोह में सम्मलित होने के लिए पुरे राजस्थान कोटा ,जयपुर ,अलवर, अजमेर, किशनगड़, भीलवाड़ा, उदयपुर,आवा, बिजोलिया ,मध्यप्रदेश के विभिन्न गुना अशोकनगर, आरोन, जबलपुर, भोपाल, इन्दौर,बेगमगंज, सागर सहित अन्य नगरों से भक्तों के काफिले पहुँचे

इस अवसर पर समारोह को संबोधित करते हुए मुनि पुगंव श्री सुधासागरजी महा राज ने कहा कि वर्षा काल में जीवों की उत्पत्ति बहुत हो जाती है प्रकृति हरी भरी हो जातीं हैं छोटे छोटे जीव जन्तु प्रकृति के साथ आनंद मनाने लगते है ऐसे सुक्षम जीवों के आनंद को संत महसूस करते हैं उन जीवों की रक्षा के लिए साधु एक स्थापना कर रूक जाते हैं संत प्रकृतिक जीवन जीने के साथ जीवों की रक्षा उनके उल्लास के आनंद को महसूस करते हैं। प्रकृति सभी को आनंद मनाने का अवसर देती हैं

उन्होंने कहा कि सनातन रूप से प्रभायमान श्रमण संस्कृति एक आदर्श संस्कृति मानी जाती हैं।

इस आदर्श संस्क्रति में जैन धर्म भक्ति प्रधान नहीं चारित्र प्रधान है। लोग धर्म को खोजते है तो आचार्य कहते हैं कि जहाँ धर्मात्मा दिख जाये वही धर्म है। संसारी प्राणी के लिए धर्म आगम तर्क ज्ञान से जाना जाता है।और धर्मात्माओ को आप अपनी आख से देख सकते हैं महसूस कर सकते है।

जगत में लोग परिस्थितियों के समान अपने विचारों को तिलाजलि दे देते हैं जवकि श्रमण परम्परा में किसी भी प्रकार की शिथिलता नहीं चलती। यदि नहीं चलते बने तो बैठ जाना लेकिन शिथिलता स्वीकार नहीं है। तुम्हारे वचनो में श्रमणता झलकना चाहिए। तुम उठो बेठो चलो फिरो तो श्रमणता झलकना चाहिए। जैसे कस्तूरी को कहना नहीं पड़ता। वैसे ही दिगम्बर साधु को देखकर लोग कह देते हैं कि ये दिगम्बर साधु है ये लाखों लोगों हैं चातुर्मास में साधु उन तुंछ जीवों के लिए चातुर्मास करते हैं जिन्हें चार माह का ही जीवन होता हैं वे जीव जिन्हें वर्षों काल में ही अपने जीवन को अंकुरित करते हैं ये बड़े खुशी के साथ अपना जीवन जीते हैं वे आलाहदित होकर आनंद मनाते हैं। संसार में इतनी वनस्पतिया है उन्हें कौन पानी देता है मात्र चार माह में ही प्रकृति से उन्हें पानी मिलता है।वे अपना जीवन जी लेते हैं इसलिए साधु सीमित हो जाते हैं स्थान की अपेक्षा कलयुग में साधुओ को चातुर्मास अनिवार्य कर दिया ।

संकलन अभिषेक जैन लुहाडिया रामगंजमडी