निर्यापक श्रमण मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज ने प्रवचन मे कहा
कर्म हमारे पापों का प्रायश्चित दण्ड है, धर्म हमारे अच्छी करनी का पुरस्कार है
1.बड़ी बड़ी महाशक्तियां भगवान राम जैसी भी जब विपरीत परिस्थिति में आई तो आत्महत्या की सोचने लगे, ऐसी आत्माओं को जब धर्म की बात आई तो धर्म के विरुद्ध नहीं भाव लाये, छुंछुलाई नहीं,धर्म को बुरा भला नहीं कहा,धर्म के प्रति दुर्भावना नहीं लाये, धर्म के प्रति श्रद्धा बड गयीं,भगवान राम ने धर्म का सहारा लिया,मुझे धर्म की शरण में जाना चाहिए राम जी पर ऐसा ही विपरीत परिस्थितियों में राम जी के धर्म के प्रति समर्पण देखकर रामजी पर बहुत ज्यादा श्रद्धा बढ गयीं
2.सम्यकदृष्टि मिथ्यादृष्टि सारे कार्य एक जैसे करते हैं सम्यकदृष्टि सारे पाप करता लेकिन सम्यकदृष्टि व्यक्ति पुण्य भी करता है पाप भी करता है बैलेंस नहीं बिगड़ने देता,सम्यकदृष्टि वस्तु चीजें चली जाएं तो चली जाये लेकिन नयी आनी चाहिए यह सोचता की सम्यक दृष्टि अपने पाप और पुण्य के सामंजस्य नहीं बिगड़ने देता हैं
3.प्रकृति ने अपने दो विभागों में विभक्त किया पहला प्रकृति ने स्वयं रखा,दूसरा निमित्त रूप,वस्तु का नाम उपादान है प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपनी स्वतंत्र शक्ति रखती है एक उपादान के आश्रित हैं तथा एक निमित्त के आश्रित,सारे कार्य निमित्त के आश्रित नहीं रखते हैं प्रकृति किसी वस्तु को नष्ट करने की शक्ति स्वयं अपने पास रखी,वस्तु का उपयोग करो नहीं तो वस्तु स्वयं नष्ट हो जाएगी।
4.कर्म की मार बड़ी खरनाक होती है कर्मो की मार ने तो तद्भव मोक्ष गामी जीव रामचन्द्र जी को रुला दिया लक्ष्मण के शक्ति लगने पर कर्मो की मार ने उनके मन मे आत्म हत्या का भाव उत्पन्न कर दिया ।।लेकिन फिर भी ये धर्मात्मा ही रहे क्योंकि जब उन्हें विभीषण आदि ने संबोधन किया तो तुरंत सम्भल गए।
आज की शिक्षा- किसी भी नियम ले लो जिसने मेरे ऊपर उपकार किया वहीं व्यक्ति जब प्राण लेने आए तो भी एक साधना करनी है उलाहना नहीं देना बुरा भला नहीं कहना।
संकलन ब्र महावीर