प्रकृति का नियम है कि जैसे जैसे व्यक्ति बड़ा होता जाता है उसका संरक्षण छोटे-छोटे हाथों में चला जाता है: मुनि पुंगव श्री सुधासागर जी

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परम पूज्य निर्यापक श्रमण मुनि पुंगव श्री 108 सुधासागर जी महाराज ने बिजौलिया के पार्श्वनाथ तपोदय तीर्थक्षेत्र में प्रवचनों में कही कि- प्रत्येक बुद्धिमान यही सोचता है कि नित्य नित्य की रक्षा करता है संरक्षण देता है पर यहां नित्य ही अनित्य के संरक्षण में पल रहा है। प्रकृति का नियम है कि जैसे जैसे व्यक्ति बड़ा होता जाता है उसका संरक्षण छोटे-छोटे हाथों में चला जाता है। एक राजा बनता है तो उसकी जिदंगी की रक्षा सिपाही के हाथ होती है, बड़ी गाड़ी का मालिक बनता है तो उसका भार ड्राइवर के हाथ में होता है। मालिकों की सत्ता नौकरों के हाथों में आ गई और नौकरों की संख्या देखकर लगाया जाता है कि वह कितना बड़ा सेठ है, सम्पत्ति से अनुमान नही लगता, कर्मचारियों से लगता है, राजा का भी अनुमान उसकी सैना से ही लगता है।

एक चक्रवती चेतन महाबली का भी बल एक जड़ वस्तु चक्र, नौ निधियों पर आधारित है। आज तीर्थंकर की भी सत्ता समोवशरण पर आधारित है केवलज्ञान, अंनतचतुष्ट की अपेक्षा सभी अरिहंत बराबर है लेकिन अरिहंतों में कोई विशेष तीर्थंकर का सारा वैभव जड़ में है। अंतरंग से सभी अरिहंतों में समानता है कुछ भी कम नही पर बहिरंग जड़ वैभव से अंतर है। उस जड़ पुदगल ने महान चेतन अरिंहत को तीर्थंकर की पहचान से दिया। अंनत चतुष्टय से धनी आत्मा की सत्ता एक पुदलग कर्मों से बनी हुई तीर्थंकर प्रकृति के आधीन होने से यह महान आत्मा अरिहंत तो होते पर इनका समोशरण नही लगता। अरिहंत तो होते नौ महिन रत्नों की वृष्टि नही होती, पांच कल्याणक नही होते। चेतन को भी अपना वैभव दिखाना है तो उसे पुदगल का आलंबन लेना पड़ता है। नित्य की सत्ता अनित्य के आधीन। द्रव्य शाश्वत अविनाशी है उसका लक्षण सत् है अर्थात उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से युक्त है। जो मिटता और बनता है वही सत् स्वरुप है। राजा होने पर राजापन का अनुभव नही क्योंकि उसके पास सैना नही है, इसी तरह से हम द्रव्य होकर भी उसका अनुभव नही कर पा रहे हैं क्योंकि हमारे पास तत्व नही है, इसलिये सृष्टि व्यवहार से द्रव्य नही है तत्व स्वरुप है। इसलिये तत्व को पहले समझो द्रव्य अपने आप समझ आ जायेगा। द्रव्य स्वयं रक्षित है, उसे कोई चुरा नही सकता,तत्व दृष्टि रखना। द्रव्य सदा पूर्ण है लेकिन हम तत्वों में सदा अपूर्ण रहे। हमने जीवत्व पर की सत्ता दस प्राणों की कृपा पर जी रहे हैं, दस प्राण भी किसी ओर के आधीन हैं, इसलिये हम जन्म में हंसते है और मरते समय रोते हैं हमने स्वयं के जीवत्व की सत्ता में नही जीते। और जीवत्व पाने के लिये हमें आस्रव और बंध तत्व पर विचार करना पड़ता है।

अहं भेद में जीव तीन तत्व को प्राप्त करता आया है- पुदगल, आस्रव और बंध को अनेक बार पकड़ा, और पास होते आये लेकिन तीन पेपर (संवर, निर्जर और मोक्ष) में फेल है। इन तीनों की शुरुआत व्रतों से होती है। हमारे भगवान अब तक आलंबनों पर जीते थे जब निरालंबन होने लगे तब उन्होंने सर्वज्ञता हासिल की। यहां बिजौलिया में दर्शन करते करते खुद के दर्शन हो जाते हैं। पुण्यहीन, शक्तिहीन पर यदि कोई उपकार करता है तो भवांतर तक याद रहता है और धरेणन्द्र और पद्मावती यही सोचकर पार्श्वनाथ के उपसर्ग के समय आये। उनकी पूजा करने से वो खुश नही होंगे, चोला पहनाने से खुश नही होंगें, बल्कि यदि धरेन्द्र -पद्मावति को सिद्ध करना है तो कभी नाग-नागेन्द्र दिख जाये तो उनके प्राण बचा लेना। धरेन्द्र पद तो अविनाशी है तो वह सुपार्श्वनाथ के समय, ऋषभनाथ के समय कहां थे, इससे साबित होता है वह पूर्व पर्याय के स्मरण से आये।

संकलन: भूपेश जैन