आपका बेटा जो गर्भ में आ रहा है वह है प्योर लोहा,थोड़ा निकिल भी नही है और वह हमारे इस संसार, घर, कुल, परिवार जो सब किचड़ है: मुनि पुंगव श्री  सुधासागर जी

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परम पूज्य निर्यापक श्रमण मुनि पुंगव श्री 108 सुधासागर जी महाराज ने 13-2-21 बिजौलिया के पार्श्वनाथ तपोदय तीर्थक्षेत्र में प्रवचनों में कही कि- तीर्थंकर जैसा सोना, जन्मजन्मातंरों जैसा सोना पुण्यशाली जीव के प्रति भी सौधर्म इन्द्र 56 कुमारीयों का भेजना गर्भ और जन्म में भी उसका इतना सावधनी रखना दर्शाता है और दूसरी तरफ आपका बेटा जो गर्भ में आ रहा है वह है प्योर लोहा,थोड़ा निकिल भी नही है और वह हमारे इस संसार, घर, कुल, परिवार जो सब किचड़ है, इसलिये हमें जन्म के समय में बहुत ध्यान रखना चाहिये नही तो वह लोहा भी जंग वाला होगा। उस सोने जैसे जीव को भी निमित्त जरुरत पड़ती है और उसे मां की गोद खोजनी पड़ती है, पराधीनता देखो, स्वर्ग से भी मोक्ष जा सकते थे लेकिन फिर भी धरती पर आये क्योंकि प्रकृति कहती है संस्कार विहिन आत्मा मोक्ष नही जाती है, स्वयं के संस्कार काम नही करेंगें उसके बाद संस्कार नियोग है, मजबूरियां हैं, कर्म ने उन्हें ऐसे ही दे दिया वह स्वयं पुरुषार्थ नही करते, कर्मों ने ऐसा बना दिया कि तुम चोरी नही करोगे, हिंसा, झूठ, कुशील, कुव्यसन भी नही करोगे।

देवताओं में ऐसा कोई दोष नही होता पर वस्तु पर परिणाम भी नही बदलते तब भी स्वर्ग से मोक्ष नही है। मोक्ष कहता है कि जो कर्मों से आधीन जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, शील और परिग्रह का पालन करता है वह त्याग नही कहलाता। संसारी भी तो असाता वेदनीय कर्म के उदय के कारण से कोई रस नही ले सकता,जैसे शूगर वाले को डाक्टर मिठाइयां खाने को मना कर देता है तो वह त्याग की भावना में नही जायेगा। ऐसे ही कर्म ने देवताओं को इतना वैभव दे देता है कि वह कोई पाप नही करते उन्हें चोरी इत्यादि के भाव ही नही आते, तभी वह त्याग में नही कहा जाता। नारकी के अशुभ कर्म की मार से भी चोरी, जुआ इत्यादि बहुत से पापों से बचते है और अकामनिर्जरा करते है लेकिन वह भी त्याग में नही आता। देवता और नारकी जबकि मांस नही खाते लेकिन मन, वचन, काया से त्याग नही होता न कोई अतिश्य होता है और एक संसारी कौवे का मांस का त्याग करता है तो उसकी जयकार हो जाती है। इसलिये मोक्ष का द्वार उसी के लिये खुलता है जहां पर किसी ने संस्कार दिये हों और उसने लिये हों उसके अधिकारी मात्र मनुष्य लोग ही हैं। मात्र यह कर्मभूमि ऐसी है कि जहां कितना भी बढ़ा उपादान हो निमित्त के रुप में गर्भ के बिना मोक्ष नही है, समूर्च्छन या उपापद जन्म वाले को भी मोक्ष नही। भोगभूमि से भी मोक्ष नही क्योंकि वहां भी मां-बाप के संस्कार नही है। सिर्फ मनुष्य पर्याय ही है जहां मां-बाप का संस्कार होता है, इसीलिये मोक्ष का द्वार उनके लिये है। आजकल बड़ी विडम्बना है कि बच्चे बड़े होकर मां-बाप से विमुख होकर अलग रहने लगते है, उनका उपकार मानना तो बहुत दूर की बात है। जन्म के समय तीर्थंकर प्रकृति का जीव भी अपने मां-पिता के शरण में आते हैं, नौ महिने तक मां से ही भोजन मिलता है। तीन ज्ञान के धारी और मोक्षधारी को भी नौ महिने तक संकुचित रहना पड़ता है। जैसे घी का दीपक मंहगा है और माचिस की तीली का कुछ मोल नही किंतु उसके बिना दीपक अंनतकाल तक शोभा को प्राप्त नही होता लेकिन दो सेकेण्ड को माचिस की कारी मिल जाये तो अंनतकाल तक के लिये दीपक जल जाता है। देखो निमित यहां उपादान के सामने बाप बन गई। निमित्त द्रव्य, वस्तु को नष्ट नही कर सकता बल्कि अर्थक्रीया यानि प्रयोजन को नष्ट कर देता है।

इसलिये याद रखना निमित्त अनुकूल हो जाये तो प्रयोजन सिद्ध हो जायेगा और यदि विदरुप हो जाये तो कुछ नही होने वाला और आज जन्मकल्याणक के अवसर पर उस पुण्यशाली, जगत का पालनहारा ने निमित्त पाकर जन्म लिया। संसारी जीव जन्म लेते ही कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि वह 10 दिन तक पूरे परिवार को भगवान, गुरु से भी अलग कर देता है और मां को 45 दिन तक देव, शास्त्र, गुरु से अलग कर देता है। कैसा अमंगल, कैसा अपशकुन सब उसके लिये जो 15 महिने तक धर्म कर रहे थे वो भी उन सबको धर्म से अलग कर देता है। और वह एक बालक ऐसा कि जो सोने रुप से जन्मते हैं तो कोई सूतक नही। देखो संसारी के जन्म को नीच कुलीन दाई उठाती है और उस पुण्यशाली जीव की इन्द्राणी शचि दाई, कितना अंतर। न खुद अशुद्ध हुये और न ही परिवार को अशुद्ध किया।

संसारिक वैभव पाना हो तो जन्माभिषेक जरुर जाना, प्रतिमाधारी और उससे आगे गंधोधक नही लगाते क्योंकि वह व्रत लेने पर पुण्य के भी त्यागी होते हैं। चारों निकाय के देवता नियोगी विक्रीया को छोड़कर सभी विक्रीया को समेटकर मेरु पर्वत पर साज सज्जा, गाजे बाजे, नाचते हुये जलूस में पंक्तिबध हो कर चल कर अहोभाग्य मानते हैं और यहां जब रथयात्रा होती है तो आप चलते ही नही, भगवान स्वयं ही आयेगें ऐसा ही आपकी धारणा है तो कैसे आपके दुख दर्द दूर होंगें।

संकलन: भूपेश जैन