परम पूज्य निर्यापक श्रमण मुनि पुंगव श्री 108 सुधासागर जी महाराज ने (14-2-21) बिजौलिया के पार्श्वनाथ तपोदय तीर्थक्षेत्र में प्रवचनों में कही कि-
पहले कल्पवृक्षों से सब कुछ चलता था। उसके बाद जब सतयुग आया तो उसमें अच्छाई और बुराईयां दोनों ही शुरु हुई। तब ऋषभदेव ने प्रथम राजगद्दी की सबसे पहले स्थापना की थी।जब आदमी एक-दूसरे के लिये जीता है तो देवता भी सहयोग करते हैं और जब वही एक दूसरे के विरुद्ध होकर स्वार्थी बन जाता है तब देवता अपना हाथ खींच लेते हैं और तुम्हारी किस्मत पर छोड़ देते हैं, यही कुछ ऐसा उस समय हुआ था। तब राजगद्दी की स्थापना की। राजा ऐसा समर्थवान हो की जनता के हर दुख को दूर कर सके। ऋषभदेव ने भी जनता के दुखों का निराकरण किया। धर्मात्मा पुरुष कभी राज्य और राजनीति के विरुद्ध नही जाते और राष्ट्र को अंग मानता हैं। जब उन्होंने जनता के संसारिक दुखों को देखा तो उन्होंने धर्म से पहले कर्म की शिक्षा देने वाले वह आदि तीर्थंकर हुये। करोड़ों सागर बीत जाने के बाद भी आज उन्ही परोपकारी का महोत्सव मनाया जा रही है क्योंकि उनके अनंत उपकार हैं। जैन के बड़े धर्मात्माओं ने धर्म से पहले कर्म को स्थान दिया। जब व्यक्ति कर्म ही नही करेने को मिलेगा तो धर्म ही क्या करेगा। जैन धर्म ने कर्म को खाद माना जो भूमि पर पड़ जाये तो धर्म रुपी फसल चौगुनी हो जाये। कर्म गंदा हो सकता है लेकिन उस कर्म को धर्म की संगति दे दी जाये तो वही धर्म की फसल को लहरा सकता है। षट कार्य – असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प व । अध्यात्म के पास ऊर्जा, प्रकाश की शक्ति है लेकिन इंधन नही है, पानी नही है खाद नही है। वह ईंधन कर्म रुपी संसार से प्राप्त होती है और तभी धर्म की ऊर्जा प्रकट होती है। अंग्रेज हमें धर्म निरपेक्ष दे गये जबकि हमें होना चाहिये धर्म सापेक्ष। सापेक्ष का अर्थ होता है कि सभी धर्मों का एक ही लक्ष्य हो विश्व शांति और एकता। अंहिसा परमो धर्म।
धर्म निरपेक्षता का अर्थ तो यह हो गया कि धर्म को निकाल दो। भारत एक ऐसा विविध धर्मों वाला देश होने के बावजूद हर व्यक्ति शांति की नींद सोता है। हमारे देश में सबसे कम नींद की गोलियां बिकती है। जब राष्ट्र, धर्म की बात आती है तब सब लोग संगठित रहते हैं। धर्म साधुओं ने भी राष्ट्र का ही साथ दिया। हमारा देश धर्म का देश है जहां हर कोई व्यक्ति किसी न किसी आस्था, विचारों से जुड़ा है हर का कोई न कोई धर्म है इसके लिये कोई ऐसी व्यवस्था राजनीति में आये कि धर्म निपेक्षता की जगह सापेक्षता का नाम मिलना चाहिये। ऋषभदेव ने एक नारा दिया- कृषि करो या ऋषि बनो । लेकिन अंग्रेजों ने मत्सय उद्योग, मुर्गी पालन को कृषि में शामिल कर दिया जो आज भी है।
जब कृषि का अर्थ होता था शाकाहार, उन्होंने अतिथि को इंगित करते हुये कहा कि यदि आप को मांसाहार खोलना था तो अलग से मांसमंदिर, मांस उद्योग बनाना था और मांस मंत्री इत्यादि जिससे हमें यह तो पता चलता की यह मांसाहारी है। उड़ीसा में एक किसान ने बताया कि हमने एक तलाब की जमीन है और उसमें कुंटल मछली उगाते है और सरकार ने भी किसान का सर्टिफिकेट दिया हुआ है। देखो अंहिसा के नाम पर मांसाहार का धंधा चला रखा है। विश्व ने अण्डा शाकाहारी है नारा दे दिया कि उसमें चूज़ा नही निकलता लेकिन अण्डा बनता तो मांस से ही ना, इससे देखो कितनी विकृतियां आ गई। पशु प्रताड़न पर सिर्फ रु. 50 का दंड जो अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा है।
उन्होंने आये हुये राजनेताओं से कही का यदि आप सब इन विकृतियों को अनुकुलता से निकाल सके तो यह स्वच्छ अभियान होगा। शाकाहारी भोजन कभी भी मांसाहार की संज्ञा नही देते लेकिन मांसाहारी भोजन को शाकाहार के रुप में परोसने में सभी देशों में होड़ लगी है। अब जैन भोजन प्रचलित होना शुरु हो गया, देखो गर्व की बात है कि दुनियां भर में जैन मुट्ठी भर लोग लेकिन जैन भोजन के आलावा कोई भी अन्य कोई जाति नही जो भोजन के कारण प्रसिद्ध हो। आज भी जैन बहुतायत से अपनी भोजन की थाली में संयम रखता है। जैनों ने भोजन तक के लिये नियम बनाये, दुनियां ने किसी भोजन के लिये नियम, कानून नही बनाये। लेकिन जैनों में है कि जो भोजन का कानून मानेगा वही जैन धर्म आपना सकता है। धर्म कभी राष्ट्र का बहिष्कार नही करता है इसलिये राष्ट्र और राजनीति को भी धर्म का सम्मान करन चाहिये भारत की पहचान राजनिति से नही बल्कि आध्यत्म से होगी, संस्कृति से होगी, धर्म से होती है और नास्त्रेदमस ने भी जब संसार का विनाश होगा तब भारत धर्म गुरु कहलाया जायेगा। ऋषभदेव ने राज करके धर्म को सम्भाला, ऋषभदेव ने बहुत बढ़ी शिक्षा दे गये पहले राष्ट्र को संभाल कर परमार्थ संभाला।
संकलन: भूपेश जैन