निर्यापक श्रमण मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज ने प्रवचन मे कहा
भगवान की पूजा अर्चना प्रमोद भाव से उछलते कूदते मेंढक के जैसे भाव थे वैसी करनी चाहिए
1.जो विपरीत दिशा दशा में भी मुख में पंखुण्डी ले कर मुंह मे दबा कर उछलता कूदता भगवान की पूजा के लिए जा रहा है वह कितना पुण्यशाली है कि मेंढक की पर्याय में भगवान की पूजा का भाव व अर्घ चढ़ा रहा है जिसको शुद्धि अशुद्धि भाषा व प्रवचन आदि भूषण कुछ भी नहीं आता।वहां मेंढक का जीव का उदाहरण हम सबके लिए बहुत बड़ा मिशाल हैं।
2.एक ही भव में अपना पुरुषार्थ करके 923 जीवों में अपना कल्याण कर जाते हैं शुन्य से उतरे साधारण प्राणी के जैसा जन्म लिया कि सारे संसार से पार हो गए संबंध उन्होंने जन्म से ही मिले उनके अलावा नहीं बनाए।
3.वह महामना महानतम महान है उनका लक्ष्य निर्धारित हो चुका है कोइ रुकावट नहीं डाल सकता है भव भव की साधना होती हैं दो-तीन भव पहले ही उनकी साधना प्रारंभ हो जाती है जो सौधर्म इन्द्र,सर्वाथ सिद्धि,लोकान्तिक देव आदि पर्याय से आये,ये तो बनना हमारा संभव ही नहीं है।
4.स्वयं को ऐसा बनाना है जिसको धर्म का कुछ नहीं बताया,कुछ नहीं सीखा कोई लालन पालन नहीं करने वाला धर्म का कुछ नहीं आता जिनकी जिंदगी में कुछ नियत नहीं जो बेसहारा थे,उन्होंने स्वयं रास्ते खोजे हैं उनके चित्र मंदिरों में बनाए जाते हैं उनके चित्र मांगलिक होते हैं।
5.जिन का मोक्ष जाना निश्चित है वह प्रथम प्रशंसनीय है लेकिन जिनका निश्चित नहीं पुरषार्थ करके की और प्रयत्न करें ऐसे मेंढक,सियार की पर्याय प्रशंसा के योग्य हैं।
शिक्षा-पूजा के समय कैसे भाव करना है यह मेंढक के जीव से सीखो।
– पकंजआंवा तपोदय