संपूर्ण भारतवर्ष में हजारों मंदिरों में चल रहा है सिद्धचक्र विधान, पर इसको रचा किसने, जरा उनकी भी करो पहचान, सिद्ध परमात्मा से मिलने का बताया संविधान

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14 मार्च/फाल्गुन शुक्ल एकादिशि /चैनल महालक्ष्मीऔर सांध्य महालक्ष्मी/

कविवर संतलाल जी और श्री सिद्धचक्र विधान का संक्षिप्त परिचय
जन्म एवं जन्म स्थान :कविवर संतलालजी का जन्म सन् 1834 में नकुड(सहारनपुर,उ.प्र.) निवासी लाला शीलचंद जी के परिवार में हुआ।

देहपरिवर्तन: कविवर संतलाल जी का देहपरिवर्तन सन् 1886 में 52 वर्ष की आयु में समाधि -भावना पूर्वक हुआ ।

शिक्षा :आरंभिक शिक्षा नकुड (सहारनपुर) में की, बाद में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए रूड़की (उत्तराखंड) के थामसन कालेज में अध्ययन किया।
स्वत: स्वाध्याय के बल से शास्त्र अभ्यास में विशेष दक्ष थे, वे अल्प आयु में ही जिनागम के मर्मज्ञ बन गये थे। जिनागम के गहन अध्ययन से वे अध्यात्मविद्या में विशेष पारंगत हो गये थे।

कृतित्व: उन्होंने अनेकों बार अन्य मतावलंबियों के साथ शास्त्रार्थ किया और जिनधर्म की सत्यता /महत्ता को उत्तर भारत में सब जगह प्रचारित किया। उनके सत्य संभाषण से सभी जगह जिनधर्म का प्रचार-प्रसार हुआ। उन्होंने जैन धर्मावलंबियों में प्रचलित अनेकों कुरीतियों को समाप्त किया।
उस समय उत्तर भारत में प्राय: हिंदू रीति-रिवाज से विवाह आदि संस्कार किए जाते थे, उन्होंने जैन विधि-विधान से विवाह आदि संस्कार प्रारंभ किए और भी अनेकों गृहीत मिथ्यात्व पोषक कार्यों से समाज को मुक्त कराया।
बचपन से असत्य भाषण न करने तथा शुभ कार्यों में ही रत रहने का संकल्प होने से इनका संतलाल नाम प्रचलित हो गया।

कृति : हिंदी (पद्यमय )भाषा में लिखा गया सिद्धचक्र विधान आपकी सर्वोत्कृष्ट रचना है।
यह सभी विधानों का राजा है।यह अष्टान्हिका पर्व पर विशेष रूप से किया जाता है,पर इसे अन्य शुभ अवसर पर भी किया जा सकता है।अष्टान्हिका के आठ दिन,मैनासुंदरी-श्रीपाल कथा और विधान की आठ पूजाओं के संयोग जुड़ने से यह विधान विशेष रूप से अष्टान्हिका पर्व पर किया जाता है।

संतलाल जी का नाम छहढाला के रचनाकार कविवर दौलतराम जी की तरह अमर हो गया। अद्भुत भेंट उन्होंने जैनसमाज को प्रदान की, जिसका उपकार जैनसमाज कभी भी सदियों तक विस्मृत नहीं कर सकता।
उन्हें अमर बनाने वाली यह महान रचना है।

सिद्धचक्र विधान की 9 विशेषताएँ

1 यह आपकी स्वतंत्र रचना है, जो कि किसी की नकल नहीं है।

2 इसके पहले सिद्धचक्र विधान संस्कृत भाषा में भट्टारक शुभचंद और ललितकीर्ति ने लिखें थे। जिसमें पूजन के जलादि अष्टक छंद संस्कृत भाषा में है पर अर्घावली के मंत्र तो द्विगुणित रूप में है पर छंद किसी भी अर्घावली के साथ नहीं है।
हर पूजा की अर्घावली में दूने-दूने अर्घों/गुणों का विकास देखने में आता है, जो अन्य किसी भी विधान में नहीं है। इसके पीछे यही अभिप्राय है कि प्रतिदिन भावों की विशुद्धि दूनी-दूनी बढ़ती जाए तभी उत्कृष्ट विशुद्धि लब्धि से जीव करणलब्धि का उद्यम कर सकेगा।
संस्कृत भाषा रचित (भट्टारक शुभचंद्र) सिद्धचक्र विधान का संक्षिप्त प्रभाव इस विधान में देखा जाता है।

3 एक विधान में अनेक विधानों का समावेश हुआ है। प्रथम, द्वितीय और तृतीय पूजा में सिद्ध परमात्मा की विशेष आराधना के बाद चतुर्थ पूजा में गणधर वलय के 48 अर्घों के माध्यम से चौषठ ऋद्धि विधान समाहित है और सिद्धों का गुणगान है।
पंचम पूजा में पापदहन विधान के माध्यम से पापाश्रव के 108 भेदों का दहन करने का उपाय बताया है और छठवीं पूजा कर्मदहन विधान के रूप में प्रसिद्ध है। सातवीं पूजा पंचपरमेष्ठी विधान के रूप में विख्यात है और अंतिम पूजा सहस्रनाम विधान के रूप में है। सहज ही एक विधान में अनेक विधानों का लाभ भव्यजीवों का उपलब्ध होता है- जो इस विधान को सर्वोत्तम विधान सिद्ध करता है।

4 अध्यात्म का दिशाबोध कराने वाला यह हिंदी का समयसार है।
संतलाल जी अध्यात्म के विशेष ज्ञाता थे,इसी कारण विधान में अशुद्ध आत्मा को शुद्ध आत्मा बनाने का सरल उपाय भक्ति परक छंदों में निबद्ध किया है।
संसारी से सिद्ध होने का संविधान जिनागम में क्या है?
इसका सरलता से विधान/उपाय प्रथमपूजा की जयमाला से समझाया गया है।
विधान की आठों जयमालायें सिद्ध परमात्मा के स्वरूप, महिमा और उसे प्राप्त करने का सुगम विधान बता रही हैं, जो मूलतः पठनीय है।
प्रथम गुणस्थान से गुणस्थानातीत होने की सरल विधि क्या हो सकती है?
यह यदि जानना/समझना हो तो विधान का पूजन के साथ-साथ स्वाध्याय भी कीजिए।

5 इस कृति में भक्ति और अध्यात्म का अनूठा संगम है।
6 छंदशास्त्र की दृष्टि से भी यह विधान विशिष्ट स्थान रखता है। 48 विशिष्ट छंदों का प्रयोग इस विधान में है।
7 सिद्धभक्ति से आत्मशक्ति और आत्मशक्ति से मुक्ति का संविधान इसी कृति में उद्घाटित किया गया है।
8 इस विधान की अद्भुत महिमा है। इसे श्रीपाल के कुष्ठ -रोग निवारण और मैनासुंदरी की भक्ति तक सीमित नहीं किया जा सकता है।यह विधान भवरोग के निवारण में पूर्णतः समर्थ है। अशरीरी होने का विधान है।
9 सिद्धचक्र विधान के अलावा पद्यमय ‘संतविलास’ नाम से आपकी अन्यकृति भी उपलब्ध है। जो 2272 पद्यमय छंदों में निबद्ध है। जिसमें स्तुति,पद,भजन आदि गर्भित है।

आज संपूर्ण भारतवर्ष में हजारों सिद्धचक्र विधान अष्टान्ह्रिका पर्व हो रहे हैं, सिद्ध परमात्मा की आराधना हम सभी मनोयोग से करें ही पर जिन्होंने हमें सिद्ध परमात्मा से मिलने का संविधान बताया है,उन कविवर संतलाल जी को भी स्मरण करते रहें।

प्रस्तुति -डॉ अशोक जैन गोयल दिल्ली