4 जून 2022/ जयेष्ठ शुक्ल पंचमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
– सांध्य महालक्ष्मी विशेष-
इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि आज हमारी बुद्धि इतनी विकृत हो चुकी है, कम्प्यूटरी दिमाग की हार्ड डिस्क, अनवांटेड फाइल्स से, डिस्क फुल दर्शा रही है, तभी तो एक ग्रंथ भी अंदर नहीं उतरता, हां रटा तो जाता है। हम पंचम काल में पहले 600-650 सालों में पूर्वाचार्यों को पूरी द्वादशांग वाणी कंठस्थ थी, फिर वह नष्ट होने लगी। अवसर्पिणी काल में कद, आयु के साथ बुद्धि का भी ह्रास होने लगा और आज से लगभग 1900 वर्ष पूर्व श्रुत के लुप्त होने की चिंता सताने लगी आचार्य धरसेन जी को, जो तब गुजरात के कठियावाड़ में स्थित गिरनार पर्वत की चन्द्रगुफा में रहते थे, जहां कुछ समय पहले जाने की बात मुनि श्री प्रणम्य सागर जी ने भी कही है।
वीर सवंत 683 के लगभग की बात है, आचार्य धरसेन वृद्ध हो गये थे, और अपना जीवन अत्यल्प अवशिष्ट देखा, तब उन्हें यह चिन्ता हुई कि दिन पर दिन ह्रास होता श्रुत, अब कल मेरे साथ लुप्त हो जायेगा। बस यही से श्रुत को लिपिबद्ध करने के बीज अकुंरित होने की शुरुआत हुई।
कौन करेगा लिपिबद्ध,तलाश सुयोग्य की
वर्तमान में हर कोई अपने-अपने अनुसार श्रुतवाणी को परिभाषित कर रहा है, पर आचार्य धरसेन ऐसे सुयोग्य की तलाश में थे कि कोई गाथा तो क्या, मात्रा तक का हेर फेर ना हो। मैं यहां एकान्त में गुफा में रहता हूं, तो कहां से लाऊ सुयोग्य, बस यही सोचते उनका ध्यान उस समय के देशेन्द्र देश (वर्तमान में आंध्रप्रदेश) के वेणा नदी के वेणाकतटीपुर में पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमण के समय आयोजित किया गया था, जिसमें सौ योजन तक वे मुनिगण ससंघ सम्मलित हुए थे। आज ऐसे युग प्रतिक्रमण नहीं होते, जिनकी आज समाज के लिये महती आवश्यकता है। उसी में धरसेनाचार्य ने वहां एक पत्र ब्रह्मचारी के हाथ संस्कृत भाषा में भेजा, जिसमें लिखा था ‘स्वस्ति श्रीमान ऊर्जयन्त तट के निकट स्थित चन्द्रगुहावास से धरसेनाचार्य वेणाक तट पर स्थित मुनिसमूहों की वंदना करके इस प्रकार से कार्य को कहते हैं कि हमारी आयु अब अल्प ही अवशिष्ट रही है। इसलिए हमारे श्रुतज्ञानरूप शास्त्र का व्युच्छेद जिस प्रकार से न हो जावे, उसी तरह से आप लोग तीक्षण बुद्धि वाले श्रुत को ग्रहण और धारण करने में समर्थ दो यतीश्वरों को मेरे पास भेजो।’
इस पत्र को सम्मेलन में आचार्य अर्हंदवली (जो पुण्ड्रवर्धनपुर के निवासी, अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता, संघ को निग्रह, अनुग्रह करने में समर्थ थे) ने पढ़ा फिर उस सम्मेलन में कुछ वर्ष पूर्व दीक्षित हुए वृद्ध मुनि नरवाहन व सुबुद्धि को भेजा, जो सम्भवत: आचार्य अर्हदबलि से दीक्षित हुए हैं। बस उन दोनों को तत्काल चन्द्रगुफा की ओर विहार के निर्देश दिये।
कौन थे वो दो मुनिराज
मुनिराज नरवाहन और सुबुद्धि विद्याग्रहण करने में तथा उसका स्मरण रखने में समर्थ थे, अत्यंत विनयी और शीलवान थे। देश, कुल और जाति शुद्ध थे। कौन थे वे दोनों, जी हां, युद्ध में पराजित राजा और उसके सेठ।
चौंकिये मत! नरवाहन वमिदेश में स्थित वसुंंधरा नगरी का शहरात वंश का प्रसिद्ध शासक था, रानी थी सरूपा। वीर, पराक्रमी, धर्मनिष्ठ। ई. 61 के लगभग गौतमी पुत्र शातकर्णी ने नरवाहन के राज्य पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया। युद्ध में सब कुछ तबाह हो गया, तब नरवाहन ने संधिकर ली। फिर नरवाहन ने अपने मित्र मगध नरेश को मुनिरूप में देखा, उनके उपदेश सुने। बस उनसे प्रेरित हो अपने जमाता, ऋषभदत्त को राज्य सौंपकर, राज्य श्रेष्ठी सुबुद्धि के साथ मुनि दीक्षा ले ली। यही नरवाहन राजा भूतबलि महामुनिराज और श्रेष्ठि सुबुद्धि महामुनिराज पुष्पदंत के नाम से विख्यात हुए।
इधर चले दोनों, उधर आया अद्भुत सपना
इधर मुनिराज नरवाहन और सुबुद्धि गिरनार की ओर विहार करते बढ़ते जा रहे थे, उधर चन्द्रगुफा में धरसेनाचार्य ने रात्रि के अंतिम पहर में एक शुभ स्वप्न देखा कि दो श्वेत वृषभ आकर उन्हें विनयपूर्वक वंदना कर रहे हैं। उस स्वप्न से उन्होंने जान लिया कि आने वाले दोनों मुनिराज, विनयवान और धर्मधुरा को वहन करने में समर्थ हैं। उठते ही उनके मुख से ‘जयउसुयदेवदा’ आशीर्वादात्मक वचन निकले। अगले दिन दोनों मुनिराज वहां पहुंचे और उन्होंने विनयपूर्वक आचार्य के चरणों में वंदना की।
प्रवेश पर पहले कठोर परीक्षा
आज दीक्षा से पहले, कठोर परीक्षा नहीं होती और यही कारण है कोई वापस गृहस्थी में चला जाता है, कोई उसी रूप में अनाचार तक की दलदल में चला जाता है। पर तब पूरे यति सम्मेलन में से दो श्रेष्ठ को भेजा गया, तब भी उनको सीधे बोलकर श्रुत को लिखने को नहीं कहा, बल्कि उनकी योग्यता की परीक्षा का निर्णय लिया धरसेनाचार्य ने और दो दिन बाद परीक्षा करने की तारीख तय की।
कैसी थी परीक्षा
आचार्य श्री स्पष्ट थे कि एक मात्रा की गलती भी सिद्धि को भंग कर सकती है और कहीं शिष्य ही अपनी इच्छा से सूत्रों को रच दे?
ऐसे अनेक विकल्पों को ध्यान में रखकर, पहले योग्यता की परीक्षा करने का निर्णय लिया और उसमें सफल होने पर ही लेखन के लिये श्रुत का पाठ किया जाये। (क्योंकि स्वच्छंद – विहारी व्यक्तियों को विद्या पढ़ाना संसार और भय को ही बढ़ाने वाला होता है।)
एक को अधिक अक्षरों वाला तथा दूसरे को हानि अक्षरों वाला विद्यामंत्र देकर दो उपवास सहित उसे साधने को कहा, पर अधिक-हीन की यह बात दोनो को नहीं बताई। बस दोनों मुनिराज गुरु के द्वारा दी गई विद्या को लेकर और उनकी आज्ञा से तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी की सिद्ध भूमि, वहीं 5वीं टोक पर पहुंचे, जिसे आज हम लोगों की आखों के सामने दत्तात्रेय टोंक में बदला जा रहा है और हम असहाय की तरह नजरें झुकायें खड़े हैं। बस दोनों नियमपूर्वक अपनी -अपनी विद्या की साधना करने लगे।
विद्या सिद्ध हुई, तो हुआ क्या
दो उपवास के साथ तीर्थंकर नेमिनाथ जी निर्वाण शिला पर बैठकर मंत्र साधना करने लगे और तब विद्यायें सिद्ध हुई, दो देवियां प्रकट हुर्इं। उन्होंने विद्या की अधिष्ठा देवियों को देखा कि एक देवी के दांत बाहर निकले हुए और दूसरी कानी है।
देवियां और विकृत, ऐसा तो हो नहीं सकता, क्योंकि देवी-देवताओं के अंग तो विकृत होते नहीं, इसका मतलब हमारे द्वारा सिद्ध करने में कुछ गलती हुई, मंत्र में अशुद्धि हुई।
इस प्रकार उन दोनों ने विचार कर, मंत्र व्याकरण शास्त्र में कुशल, अपने – अपने मंत्रों को शुद्ध किया और जिसके मंत्र में मात्रा अधिक थी, निकाल दी और जिसमें कम थी उसे जोड़ दिया और फिर दोनो ने अपने -अपने मंत्रों को सिद्ध करना प्रारम्भ किया। तब दोनों विद्या देवी अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हुई।
देवियों ने क्या कहा और मुनिराजोें ने क्या मांगा?
दोनों देवियों ने प्रकट होते ही बोला हे- स्वामिन! आज्ञा दीजिए हम क्या करें। तब उन दानों साधुओं ने कहा कि आप दोनों से हमें कोई ऐहिक या परलौकिक प्रयोजन नहीं हैं। हमने तो गुरु आज्ञा से यह मंत्र साधना की है। ये सुनकर दोनो देवियां उन्हें प्रणाम कर अपने स्थान चली गर्इं और दोनों विद्वता की परीक्षा में सफल हुये।
शुरु हुई श्रुत वाचना
आचार्य धरसेन ने महाकर्म प्रकृति प्राभृत नाम के ग्रंथ की शुभ तिथि, नक्षत्र और शुभवार में पढ़ाना प्रांरभ किया और क्रम से व्याख्यान करते हुए आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी के पूर्वान्त काल में समाप्त किया।
ग्रंथ समाप्ति पर नामकरण
अभी तक दोनों मुनिराजों को, नरवाहन और सुबुद्धि के नाम से जाना जाता था। ग्रंथ समाप्ति पर भूत जाति के व्यंतर दवों ने नरवाहन की पुष्पावली और शंख तथा सूर्य जाति के वाद्य विशेष के नाद से बड़ी पूजा की, यह देखकर आचार्य धरसेन ने कहा आज से तुम भूतबलि कहलाओगे। वही दूसरे सुबुद्धि जिन्होंने मंत्र को शुद्ध करके अस्त व्यस्त दंत पक्ति को दूर करके देवी के दांत समान कर दिये थे, उनको नाम दिया पुष्पदंत।
गुरु ने फिर बिना लिखे दे दिया दोनों को विहार का आदेश
तब धरसेनचार्य ने विचार किया कि मेरा अंतिम समय निकट है। दोनों को संक्लेश ना हो, यह विचार कर योग्य उपदेश देकर, दूसरे ही दिन वहां से कुरीश्वर देश की ओर विहार कर दिया। दोनों गुरु के चरणों में कुछ समय रहना चाहते थे, पर गुरु वचन अनुल्लड्ंघनीय है, ऐसा विचार कर वहां से चल दिये और अंकलश्वर में चातुर्मास किया। वर्षायोग के बाद पुष्पदन्त आचार्य अपने भांजे जिनपालित के साथ वनवास देश को चले और आचार्य भूतबली द्रविड़ देश को चले गये।
श्रुत की रचना किसने शुरू की
पुष्पदंत आचार्य ने अपने भांजे जिनपालित को पढ़ाने के लिए महाकर्म प्रकृति प्राभृत का 6 खण्डों में उपसंहार करना चाहते थे। इसलिये उन्होंने पहले 5 खण्ड के 6 हजार श्लोक बनाकर, उन्हें जिनपालित को देकर भूतबलि आचार्य के पास, उनका अभिप्राय जानने के लिये भेज दिया। भूतबलि महाराज ने देखा और जाना कि पुष्पदंत जी की आयु अल्प है तो शेष 30 हजार श्लोक का छठा खण्ड महाबंधा बनाया और सभी 36 हजार श्लोकों को पुस्तक बद्ध किया।
पढ़ाया कौन सा ग्रंथ और पड़ गया क्या नाम
धरसेन आचार्य ने दोनों को महाकर्म प्रकृति प्राभृत कलम बद्ध करने को निर्देश दिये थे, पर क्रमानुसार करते भूतबलि महाराज ने उसको 6 खण्ड जीवस्थान, क्षुद्रक बंध, स्वामित्वविचय, वेदना, वर्गणा और महाबंध में करने से उसका नाम पड़ गया षट्खण्डागम।
कब हुई रचना पूरी और हुआ क्या
इन्द्रन्दि और ब्र. हेमचन्द के श्रुतावसार के अनुसार, जब षट्खण्डागम ग्रंथ पूरा लिपिबद्ध हुआ, तब चतुर्विध संघ ने महापूजा की, वह दिन था, आज से 1994 वर्ष पूर्व वीर सं. 654 के ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी, और तब से आज तक उसे ‘श्रुत पंचमी’ के रूप में मनाते आ रहे हैं।
षट्खण्डागम नहीं है पहला लिपिबद्ध ग्रंथ
जी हां, श्रुत पंचमी की शुरूआत करने वाले षट्खण्डागम पहला लिपिबद्ध ग्रंथ नहीं है। इससे पूर्व दो और ग्रंथ लिपिवद्ध किये गये। आचार्य गणधर ने पेज्जदोस (कषाय) पाहुड में 233 गाथाओं की रचना की और वहीं उसके बाद धरसेन आचार्य ने मंत्र तंत्राादि शाक्तियों के वर्णन वाले योनि पाहुड की रचना की थी। पर 36 हजार श्लोक वाला यह बड़ा ग्रंथ था, इसलिये यही से लिपि वृद्ध की शुरुआत मानते हैं।