आज हमारी बुद्धि का इतना ह्रास हो चुका है कि एक ग्रंथ भी ठीक से कंठस्थ नहीं हो पाता। इतनी विकृति कि शुद्ध वाचन तो दूर की बात है और इस पंचम काल के शुरू में संत आचार्यों को पूरी द्वादशांग वाणी कंठस्थ थी। फिर वह नष्ट होने लगी। धीरे-धीरे बुद्धि का ह्रास होने लगा, अब कंठस्थ रखना असंभव सा हो गया। और महावीर स्वामी के 683 वर्ष बाद आचार्य धरसेन हुए, कहें तो उस परम्परा में 31वीं पीढ़ी। उन्हें सभी अंगों और पूर्वों का एक देश ज्ञान आचार्य परम्परा से प्राप्त था। महावीर स्वामी के बाद 3 अनुबुद्ध केवली, फिर केवलज्ञानी, अवधिज्ञानी, उसके बाद पांच श्रुतकेवली, फिर दश पूर्व धारी 11 आचार्य हुए। फिर ग्यारह अंग व चौदह पूर्वों के एकदेशधारक पांच आचार्य हुए। फिर चार आचार्य आचारांग के धारी और शेष अंग पूर्वों के एकदेश धारक हुए।
लिपिबद्ध करने का अंकुर कैसे फूटा?
आचार्य धरसेन को सभी अंगों व पूर्वों का एक देश का ज्ञान आचार्य परम्परा से प्राप्त था। वे गुजरात (सौराष्ट्र) के कठियावाड़ में स्थित गिरनार पर्वत की चन्द्रगुफा में रहते थे। अगर जन्म है, तो मृत्यु अवश्यंभावी है। जब वे वृद्ध हो गये, तो अपना जीवन अत्यल्प अवशिष्ट देखा, तब उन्हें चिंता सताने लगी कि श्रुत का दिन प्रतिदिन ह्रास होता जा रहा है और इस समय जो कुछ श्रुत मुझे प्राप्त है, उतना भी यदि मैं अपना श्रुत दूसरे को नहीं संभलवा सका, तो यह मेरे साथ ही समाप्त हो जाएगा।
बस इसी विचार के साथ श्रुत को लिपिबद्ध करने का अंकुर फूटने लगा।
योग्यजनों की शुरू तलाश
अपनी अल्पायु जान आचार्य धरसेन ने श्रुत के समाप्त होने की सम्भावना देख एक पत्र ब्रह्मचारी के माध्यम से आन्ध्र प्रदेश में तब चल रहे यति सम्मेलन में भेजा। वह सम्मेलन उस समय वेष्णा नदी के किनारे बसे हुए वेष्णा नगर में पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमण के समय आयोजित किया था। तब हर पांच बरस बाद ऐसे आयोजन होते थे, जिनमें सौ योजन तक के मुनिगण ससंघ सम्मिलित होते थे। उस पत्र को सम्मेलन में आचार्य अर्हदबली (जो पुण्डुबर्धनपुर के निवासी अष्टांग, महानिमित्त के ज्ञाता, संघ को निग्रह-अनुग्रह करने में समर्थ थे) ने पढ़ा, फिर निर्णय लिया गया कि कुछ वर्ष पूर्व ही दीक्षित हुए वृद्ध मुनि नरवाहन व सुबुद्धि को भेजा जाये। संभवत: वे दोनों ही अर्हदबलि से दीक्षित हुए थे। बस गुरु आज्ञा शिरोधार्य, दोनों पहुंच गये गिरनार पर्वत की चन्द्रगुफा में।
रचना से पहले हुई परीक्षा
ऐसा नहीं हुआ कि दोनों मुनि आये और आचार्य धरसेन ने श्रुत बोलना शुरू कर दिया। उनका मानना था कि स्वच्छंद विहारी व्यक्तियों को विद्या पढ़ाना संसार और भय को बढ़ाने वाला ही होता है, क्योंकि एक मात्रा की गलती भी सिद्धि को भंग कर सकती थी। इसीलिए परीक्षा में आचार्य धरसेन ने दो मन्त्र विद्यायें सिद्ध करने को दी। उनमें से एक मंत्रविद्या हीन अक्षर वाली थी और दूसरी अधिक अक्षर वाली। दोनों ही इस बात से अनभिज्ञ थे। दोनों को आदेश मिला कि षष्ठोपवास (दो उपवास) करके मंत्र विद्या सिद्ध करो। दोनों साधु आचार्य श्री से विद्या लेकर भगवान नेमिनाथ के निर्वाण होने वाली शिला पर बैठकर मंत्रसाधना करने लगे। विद्यायें दोनों ने सिद्ध कर ली। पर ये क्या? दो अधिष्ठासी देवियां उपस्थित तो हुर्इं, पर एक के दांत बाहर निकले हुए थे, दूसरी कानी थी।
विकृत देवियां क्यों?
दोनों को इतना तो ज्ञान था कि देवताओं के अंग तो विकृत होते नहीं, तो ये विकृत अंग वाली देवियां क्यों? जरूर मंत्र सिद्धि में कुछ गड़बड़ हुई है, यानी मंत्र में कुछ तो अशुद्धि है।
बस व्याकरण शास्त्र में प्रबुद्ध दोनों ने अपने-अपने मंत्र को शुद्ध किया। यानी अधिक अक्षर वाले से उसे निकाला और जिसमें कम था, उसमें जोड़ा और फिर मंत्रों को सिद्ध करने में एकाग्र हो गये। और फिर तो वही होना था। सर्वांग सुंदर दो देवियां प्रकट हुई और बोली – हे स्वामि, आज्ञा दीजिए हम क्या करें? पर उन दोनों ने तो किसी प्रयोजनवश तो आह्वान नहीं किया था। उन्होंने विनम्रता से कहा कि हमारा कोई ऐहिक या परलौकिक प्रयोजन नहीं था। हमने तो गुरु आज्ञा से मंत्र साधना की है। दोनों देवियां प्रणाम कर चली गई और अपनी परीक्षा में दोनों पास हो गये।
शुरू हुआ पढ़ाना, समझाना
दोनों शिष्यों की विद्वता देख आचार्य धरसेन प्रभावित हुए और उन्होंने ‘महाकर्म प्रकृति प्राभृत’ नामक महाग्रंथ का शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वार में समझाते हुए वाचन शुरू किया जो आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी को पूर्वाह्न काल में समाप्त हुआ।
नामकरण हुआ शिष्यों का
विनयपूर्वक ग्रंथ वाचना के समाप्त होने से संतुष्ट हुए भूत जाति के व्यंतर देवों ने उन दोनों में से एक की पुष्पावली तथा शंख और सूर्य जाति के वाद्य विशेष के नाद से व्याप्त बड़ी पूजा की। यह देख आचार्य धरसेन ने उसका नाम भूतबलि रख दिया और संत ने मंत्र को शुद्ध करके अस्त-व्यस्त दंत पंक्ति को दूर करके देवी के दांत समान कर दिये थे, इसलिए दूसरे का नामकरण ‘पुष्पदंत’ कर दिया।
फिर शुरू हुआ महाग्रंथ लेखन
अपनी आयु पूर्णता निकट जानकर दोनों को आचार्य श्री ने वहां से विहार का आदेश दे दिया, वे जानते थे कि इससे ये घबरा जाएंगे।
दोनों ने आचार्य श्री की आज्ञा शिरोधार्य रखते हुए अंकलेश्वर (सूरत के निकट) पहुंचे, जहां चातुर्मास किया। फिर पुष्पदंत, जिनपावित को लेकर वन में चले गये और भूतबलि दुमिल देश की ओर विहार कर गये। फिर पुष्पदंताचार्य ने जिनपालित को दीक्षा देकर बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररुपणा के सूत्र बनाकर और जिनपालित को पढ़ाकर, भूतबलि आचार्य के पास भेज दिया। इस प्रकार पुष्पदंत आचार्य ने पांच अध्यायों के 6 हजार श्लोक लिखे। भूतबलि ने जिनपालित के पास बीस प्ररूपणा अंतर्गत सत्प्ररूपणा के सूत्र देखे और वयोवृद्ध पुष्पदंतजी की अल्पायु जानकर उस महाग्रंथ के विच्छेद होने के भय से द्रव्य प्रमाणुगत से लेकर जीवस्थान, क्षुद्रक बंध, बंध स्वामित्यविचय, वेदना, वर्गणा और महाबंध रूप की रचना कर ग्रन्थ पूरा किया।
1890 वर्ष पूर्व लिपिबद्ध हो गया महाग्रन्थ
इन्द्रन्दि और ब्रह्म हेमचंद ‘श्रुतावसार’ के अनुसार जैसे ही इस महाग्रंथ की रचना पूरी हुई, तब चतुर्विध संघ सहित इस महाग्रंथ की पूजा अर्चना की। वह दिन था ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी। यानी 36 हजार सूत्रों वाले ग्रंथराज की आज से 1890 वर्ष पूर्व कृति कर्म पूर्वक महापूजा की गई और उसी वर्ष वीर संवत् 654 के दिन से हम श्रुतपंचमी पर्व मनाते आते रहे हैं।
पढ़ाया ग्रंथ कौन-सा,नाम पड़ गया कौन-सा
आचार्य धरसेन ने पुष्पदंत व भूतबलि महाराज को परीक्षा में खरा उतरने के बाद लिपिबद्ध करने के लिए ‘महाकर्म प्रकृति प्राभृत’ महाग्रंथ को पढ़ाया। दोनों आचार्यों ने उस ग्रंथ का मंथन कर ताण पत्रों पर उसको रचा। पर छ: खण्डों में विभाजित होने से उसका नाम पड़ गया – षट्खण्डागम।
पराजित राजा व सेठ ने लिपिबद्ध किया महाग्रंथ
चौंकिए मत! ‘नहपान’ वमिदेश में स्थित वसुन्धरा नगरी का क्षहरात वंश का प्रसिद्ध शासक था, रानी थी सरूपा। वीर, पराक्रमी, पूजा का संपालक नहपान धर्मनिष्ठ था। ई. 61 के लगभग गौतमी पुत्र शातकर्णी ने नहपान राज्य पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया। युद्ध में उसका सर्वस्व विनिष्ट हो गया, उसने संधि कर ली। फिर नहपान ने अपने मित्र मगध नरेश को मुनि रूप में देख, उपदेश से प्रेरित होकर अपने जमाता ऋषभ दत्त को राज्य सौप अपने राज्य श्रेष्टि सुबुद्धि के साथ मुनि दीक्षा ले ली। आचार्य अर्हदबली के संघ में ज्ञानार्जन किया और उन दोनों ने आचार्य धरसेन से ग्रहण कर महान ग्रंथ षट्खंडागम की रचना की। राजा नहपान भूतबलि व नगर श्रेष्ठि सेठ सुबुद्धि पुष्पदंत नाम से विख्यात हुए।
षट्खण्डागम पहला नहीं,तीसरा लिपिबद्ध ग्रंथ
आज से 1890 वर्ष पूर्व वीर संवत 654 में ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी श्रुत पंचमी के नाम से सुविख्यात हो गई जब इस दिन षट्खण्डागम महाग्रंथ के लिपिबद्ध होते ही चुतर्विध संघ द्वारा पूजा की गई। प्रचलित हो गया कि यह पहला लिपिबद्ध ग्रंथ है। वास्तव में यह पहला नहीं तीसरा है। इससे पूर्व आचार्य गुणधर ने पेज्जदोस (कषाय पाहुड) की 233 (180+53) गाथाओं को लिपिबद्ध किया, फिर इसके बाद धरसेन आचार्य ने ‘योनि पाहुड’ की रचना की। जिसमें मन्त्र-तन्त्रादि शक्तियों का वर्णन है और आज भी रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना के शास्त्र भण्डार में मौजूद है। आचार्य धरसेन ही संभवत: महाकर्म प्रकृति प्राभृत को रचते, पर अल्पायु के कारण उन्होंने उसका वाचन कर दो मुनिराजों भूतबलि-पुष्पदंत को लिपिबद्ध करने का निर्देश दिया।
36000 श्लोक प्रमाण ‘षट्खण्डागम’ है क्या?
छ: खण्डों में होने के कारण ‘महाकर्म प्रकृति प्राभृत’ का नाम ‘षट्खण्डागम’ महाग्रन्थ लोकप्रिय हो गया। 36 हजार श्लोक प्रमाण के इस ग्रन्थ के पहले पांच खण्ड के 6 हजार श्लोक पुष्पदंत जी द्वारा लिपिबद्ध हुए तथा फिर छठा खण्ड ‘महाबंध’ भूतबलि ने 30 हजार श्लोक लिख पूरा किया।
पहला – जीवस्थान, दूसरा – खुद्दाबन्ध, तीसरा – बन्ध स्वामित्व विचय, चौथा – वेदना खण्ड, पांचवा – वर्गणाखण्ड है। छठे – ‘महाबंध’ में बंध की प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप चारों प्रकार के बंधों के अनेक अनुयोग द्वारों से विस्तारपूर्वक 30 हजार श्लोक में विवेचन किया गया है।