पुष्पदन्त और भूतबलि का नाम साथ-साथ प्राप्त होता है फिर भी नंदिसंघ की प्राकृत पट्टावली में पुष्पदंत को भूतबलि से ज्येष्ठ माना गया है। धरसेनाचार्य के बाद पुष्पदंत का आचार्य काल ३० वर्ष का बताया है और इनके बाद भूतबलि का २० वर्ष कहा गया है अत: इनका समय धरसेनाचार्य के समय के लगभग ही स्पष्ट है।
यह तो निश्चित ही है कि श्री धरसेनाचार्य ने दो मुनियों को अन्यत्र मुनिसंघ से बुलाकर विद्याध्ययन कराया था। अनंतर शास्त्र समाप्ति के दिन उनकी विनय से सन्तुष्ट हुए भूतजाति के व्यंतर देवों ने उन दोनों में से एक मुनि की पुष्प, बलि तथा शंख और सूर्य जाति के वाद्य विशेषों के नाद से बड़ी भारी पूजा की। उसे देखकर धरसेनाचार्य ने उनका भूतबलि यह नाम रखा और दूसरे मुनि की अस्त-व्यस्त दंतपंक्तियों को ठीक करके उनके दांत समान कर दिए, जिससे गुरु ने उनका पुष्पदंत नाम रखा। इस धवला टीका के कथन से यह बात स्पष्ट है कि इनका पूर्व नाम कुछ और ही होना चाहिए तथा इनका गृहस्थाश्रम का परिचय क्या है यह जिज्ञासा सहज ही होती है।
विबुध श्रीधर के श्रुतावतार में भविष्यवाणी के रूप में पुष्पदंत और भूतबलि आचार्य के जीवन पर अच्छा प्रकाश देखने में आता है।
कथानक
भरतक्षेत्र के वामिदेश-ब्रह्मादेश में वसुन्धरा नाम की नगरी होगी। वहां के राजा नरवाहन और रानी सुरूपा पुत्र न होने से खेदखिन्न होंगे। उस समय सुबुद्धि नाम का सेठ उन्हें पद्मावती की पूजा का उपदेश देगा। तदनुसार देवी की पूजा करने पर राजा को पुत्र लाभ होगा और उस पुत्र का नाम पद्म रखा जाएगा। तदनन्तर राजा सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण कराएगा। इसी समय बसन्त ऋतु में समस्त संघ यहाँ एकत्र होगा और राजा सेठ के साथ जिनपूजा करके रथ चलाएगा। इसी समय राजा अपने मित्र मगध सम्राट को मुनीन्द्र हुआ देख सुबुद्धि सेठ के साथ विरक्त हो दिगम्बरी दीक्षा धारण करेगा।
इसी समय एक लेखवाहक वहां आएगा वह जिनदेव को नमस्कार कर मुनियों की तथा परोक्ष में धरसेन गुरुदेव की वन्दना कर लेख समर्पित करेगा। वे मुनि उसे बाचेंगे कि ‘‘गिरिनगर के समीप गुफावासी धरसेन मुनीश्वर अग्रायणीय पूर्व की पंचमवस्तु के चौथे प्राभृतशास्त्र का व्याख्यान आरम्भ करने वाले हैं अत: योग्य दो मुनियों को भेज दो। वे मुनि नरवाहन और सुबुद्धि मुनि को भेज देंगे। धरसेन भट्टारक कुछ दिनों में नरवाहन और सुबुद्धि नाम के मुनियों को पठन, श्रवण और चिंतन कराकर आषाढ़ शुक्ला एकादशी को शास्त्र समाप्त करेंगे। उनमें से एक की भूतजाति के देव बलिविधि करेंगे और दूसरे के चार दाँतों को सुन्दर बना देंगे अतएव भूतबलि के प्रभाव से नरवाहन मुनि का नाम भूतबलि और चार दाँत समान हो जाने से सुबुद्धि मुनि का नाम पुष्पदंत होगा।’’
श्रुतावतार में लिखा है
इन्द्रनंदिकृत श्रुतावतार में यह लिखा है कि इन्होंने ग्रन्थ समाप्त कर गुरु की आज्ञा से वहाँ से विहार कर अंकलेश्वर में वर्षायोग बिताया। वहाँ से निकलकर दक्षिण देश में पहुंचे। वहाँ पर पुष्पदंत मुनि ने करहाटक देश में अपने भानजे जिनपालित को साथ लिया और दैगम्बरी दीक्षा देकर उन्हें साथ लेकर वनवास देश को चले गए तथा भूतबलि मुनि द्रविड़ देश में चले गए। वनवास देश में पुष्पदंताचार्य ने बीसदि सूत्रों की रचना की और जिनपालित को पढ़ाकर तथा उन सूत्रों को उसे देकर भूतबलि मुनि का अभिप्राय जानने के लिए उनके पास भेजा। उन्होंने पुष्पदंताचार्य की अल्पायु जानकर और उन सूत्रों को देखकर बहुत ही सन्तोष प्राप्त किया। पुन: आगे श्रुत का विच्छेद न हो जाए, इस भावना से द्रव्य प्रमाणानुगम को आदि लेकर आगे के सूत्रों की रचना की।
इस प्रकार से भूतबलि आचार्य ने पुष्पदंताचार्य विरचित सूत्रों को मिलाकर पाँच खण्डों के छह हजार सूत्र रचे और तत्पश्चात् महाबन्ध नामक छठे खण्ड की तीस हजार सूत्रग्रंथरूप रचना की। इस तरह षट्खण्डागम की रचना कर उसे ग्रन्थरूप में निबद्ध किया, पुन: ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन उस श्रुत की महान पूजा की। अनंतर भूतबलि ने जिनपालित को षट्खण्डागम सूत्र देकर पुष्पदंत के पास भेजा। अपना सोचा हुआ कार्य पूर्ण हुआ, ऐसा देखकर पुष्पदंताचार्य ने भी श्रुतभक्ति के अनुराग से पुलकित होकर श्रुतपंचमी के दिन चतुर्विध संघ के समक्ष उनकी महान पूजा की।
यह षट्खण्डागम ग्रन्थ महाकर्मप्रकृति प्राभृत का अंश है तथा इसमें उसके अर्थ के साथ-साथ सूत्र भी समाविष्ट हैं। भूतबलि आचार्य ने चतुर्थ वेदनाखंड में जो णमो जिणाणं आदि ४४ मंगलसूत्र दिए हैं, व गौतमस्वामी के मुखकमल से निकले हुए हैं। इससे श्री पुष्पदंत और भूतबलि आचार्य इस महान ग्रन्थ के कर्ता नहीं हैं बल्कि प्ररूपक हैं अत: षट्खंडागम का द्वादशांगवाणी के साथ साक्षात् संबंध है।
षट्खंडागम का रहस्य
यह ग्रन्थ छह खण्डों में विभक्त है, अत: इसे षट्खण्डागम कहते हैं। उनके नाम-जीवट्ठाण, खुद्दाबंध, बंधसामित्तविचय, वेयणा, वग्गणा और महाबंध।
श्री धरसेनाचार्य, पुष्पदंत और भूतबलि के विषय में धवला में अनेक विशेषताएँ उपलब्ध हैं। यथा-
जयउ धरसेणणाहो, जेण महाकम्मपयडिपाहुडसेलो।
बुद्धिसिरेणुद्धरिओ समप्पिओ पुप्फयन्तस्स।।
वे धरसेनस्वामी जयवन्त होवें जिन्होंने महाकर्मप्रकृतिप्राभृतरूपी पर्वत को अपने बुद्धिरूपी मस्तक से उठाकर पुष्पदंत को समर्पित किया है।
पणमामि पुप्फयंतं, दुण्णयंधयाररविं।
भग्गसिवमग्गकंटय मिसिसमिइवइं सया दंतं।।
जो पापों का अन्त करने वाले हैं, कुनयरूपी अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्यतुल्य हैं, जिन्होंने मोक्षमार्ग के विघ्नों को नष्ट कर दिया है, जो ऋषियों की सभा के अधिपति हैं और निरंतर पंचेन्द्रियों का दमन करने वाले हैं, ऐसे पुष्पदंताचार्य को मैं प्रणाम करता हूँ।
यहाँ पर ऋषिसमितिपति विशेषण से ये महान संघ के नेता आचार्य सिद्ध होते हैं। ऐसे ही-
ण चासंबद्धं भूदबलिभडारओ परूवेदि, महाकम्मपयडिपाहुड-अमियवाणेण ओसारिदासेसरागदो-समोहत्तादो।
भूतबलि भट्टारक असंबद्ध कथन नहीं कर सकते क्योंकि महाकर्मप्रकृति प्राभृतरूपी अमृतपान से उनका समस्त राग-द्वेष, मोह दूर हो गया है।
इन प्रकरणों से इन पुष्पदंत और भूतबलि आचार्यों की महानता का परिचय मिल जाता है। ये आचार्य हम और आप जैसे साधारण लेखक या वक्ता न होकर भगवान महावीर की द्वादशांग वाणी के अंशों के आस्वादी और उस वाणी के ही प्ररूपक थे तथा राग, द्वेष और मोह से बहुत दूर थे। उनके संज्वलन कषाय का उदय होते हुए भी वे असत्यभाषण से सर्वथा परे होने से वीतरागी थे, महान पापभीरू थे।
बड़े सौभाग्य की बात है कि उनके द्वारा शास्त्ररूप से निबद्ध हुआ परमागम आज हमें उपलब्ध हो रहा है और हम लोग उनकी वाणी का स्वाध्याय करके अपने असंख्यातगुणित कर्मों की निर्जरा कर रहे हैं तथा महान पुण्य संचय के साथ-साथ ही सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर अपने आप में कृतकृत्यता का अनुभव कर रहे हैं।
– बालाचार्य पावनकीर्ति