06 दिसंबर 2022/ मंगसिर शुक्ल चतुर्दशी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी
31 जनवरी 1998 की तरह इस बार भी मूर्तिपूजक श्वेताम्बर समाज अदालत पहुंच गया और मंदिर कमेटी द्वारा अदालत में अंडरटेकिंग देने के बाद ही याचिका निरस्त हुई थी कि 100 एमएल वाले कलशों से ही अभिषेक और मंदिर परिसर में किसी नई मूर्ति की स्थापना नहीं। इसीलिये चौबीसी और खड्गासन श्री महावीर स्वामी की प्रतिमायें कीर्ति स्तम्भ के पास विराजमान की गई।
एक सवाल चिंतन में आता है कि धन के बल पर धर्म किया जा सकता है? हां, आप सभी का जवाब होगा कि ‘कदापि नहीं’। क्या धन के बल पर ही पुण्य कमाया जा सकता है? यहां भी यही कहेंगे कि ‘कदापि नहीं’। धर्म भावनाओं को देखता है, पेटी को नहीं, नोटों की गड्डी को नहीं, ‘भावनाओं’ को ही सर्वोपरि माना गया है, वह अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, महिला-पुरुष का, जैन-अजैन तक का भेद नहीं करता, तभी सभी तीर्थंकर क्षत्रिय और सभी गणधर ब्राह्मण हुये। हां, आज धर्म में धन की आवश्यकता होती है, पर ऐसा नहीं कि धर्म को खड़ा करने के लिये धन की बैसाखियां ही केवल कारगर बने। हां, तीर्थ के निर्माण में धनाढ्य लोगों को अब वरीयता का समय आ गया है, पर आम जनों को नकारना जैन संस्कृति कभी नहीं सिखाती।
इस बार 80 हजार या उससे ऊपर राशि के कलश लेने वालों को मंदिर में प्रवेश मिला और शाम के बाद अन्य श्रावकों को यानि जिन्होंने इतने ऊंचे मूल्य के कलश नहीं लिये, उन्हें अभिषेक देखना तो दूर, मंदिर में एंट्री तक नहीं मिली। कुछ भक्तों ने तो ‘सान्ध्य महालक्ष्मी’ से यह तक शिकायत की, कि उनकी आंखों के सामने एक मुनिराज और आर्यिका तक को प्रवेश नहीं दिया, वैसे कमेटी इस बात से इंकार करती है। कमेटी का दावा है कि मंदिर परिसर में व्यवस्थाओं के चलते अन्य का प्रवेश बंद करना पड़ा, पर दूसरी तरफ यह स्पष्ट लगा कि अब धर्म भी धन की बैसाखियों पर मानो चलने को मजबूर हो गया है, क्या इसी तरह पुण्य का अर्जन होगा?
यही नहीं, श्री महावीरजी के इस मंदिर में आज तक महिलाओं द्वारा अभिषेक की कोई परम्परा नहीं रही है। पर पैसे की आड़ में सभी परम्पराओं को ताक पर रख दिया गया। एक राष्ट्रीय स्तर के दैनिक अखबार ‘पत्रिका’ में अभिषेक करते हुए एक श्रावक को हाथ लगाती, कैमरे की ओर देखती महिला का फोटो कमेटी द्वारा ही छपवाया गया (क्योंकि मंदिर परिसर में किसी कैमरामेन को भी जाने की इजाजत नहीं थी)। क्या दिखाना चाहती है कमेटी? आज पंथवाद-संतवाद में इतना बंटने के बाद भी परम्परायें तोड़ना, क्या संदेश देना चाहती है कमेटी। इसका स्पष्टकीरण जरूर देना चाहिये, क्या इस अतिशय तीर्थ पर परम्परायें तोड़ने का अधिकार कमेटी को दिया गया है?
यही नहीं, अंतिम दिन नई चौबीसी में तीर्थंकर कुंथुनाथ भगवान की प्रतिमा पर अनेकों महिलाओं ने आचार्य श्री वर्धमान सागरजी ससंघ के समक्ष अभिषेक किया। दिल्ली वालों को संभवत: इस बार वो उपस्थिति नहीं मिली, जैसे हमेशा मिलती आई है। कहा तो यहां तक जाता है कि चार तारीख को लगभग सौ लोगों को नि:शुल्क अभिषेक कराया गया। पर वो सब आम श्रावक नहीं, जयपुर कमेटी के खासमखास लोग ही थे।
80,000 रुपये या अधिक का कलश लेने पर ही प्रवेश और अभिषेक, तथा महिलाओं द्वारा अभिषेक किये जाने के दृश्यों ने इस व्यवस्थित महामहोत्सव पर दो बड़े प्रश्नचिह्न लगाकर कमेटी के सामने दो ऐसे प्रश्न खड़े कर दिये हैं, जिसकी जवाबदेही तो बनती ही है।
ऐसे क्या कारण थे कि मोटी राशि देने वालों के अलावा, किसी अन्य के ठहरने की उचित अस्थायी व्यवस्थायें नहीं की गई, श्रवणबेलगोल, मांगीतुंगी तीर्थों में हमेशा ये व्यवस्थायें देखी गई हैं।