19अप्रैल 2022/ बैसाख कृष्णा तृतीया /चैनल महालक्ष्मीऔर सांध्य महालक्ष्मी/
साधु समाज में व्याप्त शिथिलाचार असहनीय है और होना भी चाहिए । वे गृहस्थ नहीं हैं अपितु गृहस्थों के द्वारा पूज्य हैं। उनकी पूजा और पादप्रक्षालन गृहस्थ इस भाव से करता है मानो वे जिनेश्वर के लघुनंदन न होकर साक्षात् जिनेश्वर हों । अत: दो ही मार्ग हैं या तो साधु साधु बनकर जिएं या साधु पद छोड़कर गृहस्थ धर्म अपनाएं । ‘मध्यममार्ग’ के लिये जैनधर्म, समाज में कोई जगह नहीं है ।
अब जरूरी हो गया है कि जो साधु शिथिलाचार में पकड़े जाते हैं उन्हें क्षमा माँगने पर भी क्षमा नहीं किया जाये। या तो उनके विरुद्ध पुलिस में कार्यवाही हो या जीवन पर्यन्त के लिए साधुपद छुड़ा लिया जाये। ऐसा इसलिए उनसे किया जाये ताकि वे जीवन पर्यन्त प्रायश्चित कर सकें और अपनी भूल का परिमार्जन करें । पुन: दीक्षा देने वाले और दीक्षा लेने वाले दोनों दोषी माने जाएं । समाज उनका बहिष्कार करे ।
वैदिक परम्परा के अनुसार अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी के पाँच पुत्रों की नृशंस हत्या के बदले में श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने उसके मस्तक पर लगी मणि को निकाल लिया था और अभिशाप दिया था कि जीवनभर तुम्हारे मस्तिष्क पर यह घाव बना रहेगा और रिसता रहेगा ताकि तुम्हें हमेशा अपराध बोध होता रहे । इसी तरह एक साधु के शिथिलाचार की यही सजा है कि उससे जीवन भर के लिये साधुपद छीना जाये ।
आज स्थिति बड़ी विचित्र है कि शिथिलाचारी साधुओं को गुरु छोड़ते समय, आचार्य बनते समय, शिथिलाचार करते समय मूलाचार, भगवती आराधना, मूलाचार प्रदीप, अनगार धर्मामृत याद नहीं आते और ज्यों ही शिथिलाचार करते पकड़े जाते हैं तुरन्त क्षमायाचना और प्रायश्चित याद आ जाता है। ‘‘अब मुझसे गलती नहीं होगी, मैं अपने किये पर शर्मिन्दा हूँ, मुझे क्षमा कर दो’’; ये नाटकीय शब्द हर शिथिलाचारी के होते हैं और समाज पिघल जाता है। शास्त्रों की दुहाई देकर कहा जाने लगता है कि उनमें क्षमा याचना करने पर प्रायश्चित का विधान है । शास्त्र की आड़ लेकर बचने का यह प्रयास मात्र तात्कालिक होता है । यह मनोवृत्ति को बदलने में कारगर होता नहीं दिख रहा है । आज कोई और, कल कोई और; यह कब तक चलेगा ?
नहीं, समाज को अब पिघलना नहीं है, कठोर बनना है। जो अपने गुरु का नहीं हुआ, वह समाज का क्या होगा ? साधु के लिए शिथिलाचार आत्महत्या के समान होना चाहिए । बार-बार कहने के बाद भी एकल विहार बंद नहीं हो रहा है। आचार्य पद देना बंद नहीं हो रहा है ।
आजकल जन्मदिन मनाने की एक नयी रीति सामने आ गयी है । साधु ढोंगी बाबा बनकर बैठ जाते हैं और टोकरियों में भरकर प्रायोजित तरीके से फूलों की वर्षा करवाते हैं । बड़े-बड़े ख्यात नामधारी आचार्य, मुनि ऐसा करवा रहे हैं और भक्तजनों से बेशर्मी से सोशल मीडिया/चैनल पर वीडियो डलवा रहे हैं । कहाँ है वह चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज का उपदेश/आदेश ; जब उनसे पूछा गया था कि मैं एक फूल आपके के अंगूठे पर रख दूं तो यह उचित होगा या अनुचित ? तब आचार्य श्री ने कहा था कि फूल एकेन्द्रिय होता है, सुकोमल भी । पंचेन्द्रिय मानव शरीर गर्म रहता है अत: तप्त मानव शरीर का स्पर्श होते ही एकेन्द्रिय जीव का घात होगा अत: हिंसा के दोष से बचने के लिए साधु की पूजा में उनके पैरों पर/ अंगूठे पर फूल नहीं रखना चाहिए ।
कहाँ एक फूल चढाने का निषेध और आप हैं कि कुण्टलों फूलों की वर्षा करवा रहे हैं; ऊपर से आप महाव्रती हैं ? कहीं तो सिद्धान्त और व्यवहार में संगति होना चाहिए ।
एक-एक साधु की भूल/गलती/अनाचार/दुराचार/शिथिलाचार का शिकार और कोई नहीं अपितु समाज होता है, उसे ही शर्मिन्दा होना पड़ता है अत: समाज को सख्त कदम उठाना ही चाहिए ।
जिन-जिन साधुओं पर हाल के इन पाँच वर्षों में शिथिलाचार के मामले सामने आये हैं उन्हें अपने-अपने पद का परित्याग कर गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना चाहिए। उनके गुरुओं को चाहिए कि वे उन्हें पद त्याग करवायें । यदि ऐसा नहीं होता तो स्थिति यह बनेगी कि समाज के बच्चे, युवा-युवती साधु के पास जाने से डरेंगे या उल्टा भी हो सकता है कि उन्हें अपनी वासना का शिकार बनायें । इस भयावह स्थिति से बचाव में साधु और समाज ही आगे या सकते हैं ।
बहुत हो गये आचार्य, अब बन्द करो आचार्य बनाना । बिना संघ के आचार्य क्यों ? आचार्य बनकर संघ बढाने के लिए अयोग्यों को दीक्षा क्यों ?
बहुत आचार्य बना देने से आचार्य पद ‘प्रभाहीन’ हो रहा है । जहाँ-जहाँ अनेक आचार्य बने हैं वहाँ-वहाँ संघ में शिथिलता आयी है । हम सब एक संघ, एक आचार्य के अनुशासन को क्यों नहीं मान सकते ? आपने दीक्षा लेते समय जीवनभर के लिए शिष्यत्व स्वीकार किया था तो अब जरा सा अनुभव होते ही आचार्य पद की लालसा क्यों ? गुरु के रहते हुए स्वयं गुरु बनने के लिए उत्साह क्यों ?
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के संघ में एक ही आचार्य वे स्वयं हैं और चार सौ से अधिक शिष्यों के संघ का संचालन कर रहे हैं । आचार्य श्री वर्द्धमान सागर जी महाराज ने किसी को अपने संघ में या संघ के बाहर आचार्य नहीं बनाया । श्वेताम्बर तेरापंथ संघ में एक ही आचार्य श्री महाश्रमण हैं । अन्य परम्पराएं भी इसका अनुकरण करें ।
मैं तो चाहता हूँ कि नये बने आचार्य स्वयं अपने आचार्य पद को अपने गुरु को समर्पित कर दें और कहें कि जब तक गुरुदेव आप हैं संघ के एकमात्र आचार्य आप ही रहेंगे। कैसा महिमामय परिदृश्य होगा; जैसा कि हम सबने अभी हाल ही में कुण्डलपुर में देखा है ।
अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् अपनी स्थापना के समय सन् 1944 से शिथिलाचार का विरोध करती रही है और आगे भी करती रहेगी । मेरा समाज के जागरूक महानुभावों से निवेदन है कि यदि किसी संघ में या किसी साधु विशेष के द्वारा इस प्रकार का कोई कृत्य होता दिखाई देता हो जो शास्त्र विरुद्ध हो, समाज विरुद्ध हो और शिथिलाचार की श्रेणी में आता हो तो तुरंत हमें सूचित करें । हमारी विद्वत्परिषद् ऐसे तथाकथित साधुओं को उनके घर भेजने में मदद करेगी ।
कर्मयोगी (डॉ.) सुरेन्द्रकुमार जैन महामन्त्री-अ.भा.दि.जैन विद्वत्परिषद्,
एल. 65, न्यू इन्दिरानगर, बुरहानपुर-450331, मो. 9826565737