इस मिट्टी पर किसका मालिकाना हक है, जिस मकान-दुकान – उद्योग या जमीन के किसी टुकड़े को अपना-अपना, जब-जब कहते हैं, तो बहुत बड़ी गलतफहमी में जीते हैं। खाली हाथ आये हैं, खाली हाथ जाना है, फिर क्यों भाई-भाई को आपस में लड़ना है, सारे जगत के लिये हंसी का पात्र बनना है।
गजब नहीं है, ज्यादा क्योंकि अगर प्रथम तीर्थंकर के दोनों ज्ञानी नाराय संहनन पुत्र भरत-बाहुबली ही अपनी मान की पुष्टि में लड़ने को तैयार हो जाते हैं, तो हम भी तो लड़ेंगे ही। क्या यही दर्शाना चाहते हैं। पर ध्यान रहे, वो दोनों भगवान हो गये, पर हमें क्या वो दर्जा मिलेगा, कभी नहीं। हम तो केवल अपनी-अपनी मूंछ ऐंठने में लगे हैं। संत चाहते हैं हम एक हों, श्रावक चाहते हैं एक रहें, तो फिर ऐसा क्यों?
पहले बतायें श्वेताम्बर-दिगम्बर कमेटियों में ‘पारसनाथ’ – शिखरजी पर अपने मालिकाना हक के लिए सर्वोच्च अदालत में विवाद चल रहा है। इस तीर्थ पर मालिकाना हक मेरा है, यहां पर दान की गुल्लकों में आने वाला पैसा मेरा है, इसलिए दो-दो पेटी कुछ टोंकों पर दिख जाएंगी। सरकार को 20 से 25 फीसदी टेक्स का कभी हिस्सा देने वाला जैन समाज चंद लाख के दान के लिये आपस में लड़ रहा है, पहाड़ पर मालिकाना हक के लिए
। घर में जब दीवार खिंचती है, तो वहां से लक्ष्मी-सरस्वती दोनों ही मुख मोड़ लेती हैं, वही आज जैन समाज के साथ तो यह नहीं हो रहा।
आगामी 08 फरवरी 2022 को वो फिर तारीख है, इस विवाद की और दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष श्री शिखरचंद पहाड़िया जी की मानें तो वो ही 4 से 5 करोड़ रुपये वकीलों को देने के लिये मजबूर हैं, और इतनी ही राशि श्वेताम्बर भाई भी खर्च करेंगे, यानि 8 करोड़ जैन समाज का चंद वकीलों की जेब में पहुंच जाएगा। कहा भी है दो बंदरों की लड़ाई में बिल्ली की बन आती है।
उत्तम मार्दव धर्म को मानने वाला यह जैन समाज पूजा में कह तो सकता है, पर मानने को तैयार नहीं। अगर हम पारसनाथ शिखरजी को श्वेताम्बर या दिगम्बर तीर्थ कहा गया तो कुछ नहीं मिलेगा, मिलेगी पूरे संसार में अलग पहचान जब कहेंगे, यह तीर्थ जैन समाज का है। आपस में लड़ते – लड़ते, दूसरों से सुरक्षा कहां कर पाओगे और यही कारण है कि दोनों भाई आपस में लड़ने को तैयार हैं पर अपने दूसरे बड़े तीर्थ गिरनारजी पर समर्पण को तैयार हैं। भाई-भाई से लड़ सकता है, पर दूसरों से नहीं।
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क्या गजब है, हर तारीख पर करोड़ों लुटाने वाले अपने ही घर की छीना-झपटी कर रहे हैं, आनंद तो तब आता, जब दोनों ही सम्प्रदाय की कमेटियां अपने तीर्थों के आगे अभेद दीवार बन कर खड़ी हो जाती। ये तीर्थ न दिगम्बर है, न श्वेताम्बर है, यह तो शाश्वत तीर्थ आदि-महावीर का है, जैनों का है।
सूत्र बताते हैं कि दोनों कमेटियों में आपसी सुलह अंतिम चरण में पहुंच जाती है, यानि हाथी निकल गया, पर बस पूंछ रह जाती है। सभी बिन्दुओं पर सहमति बन जाती है, यानि दस में से आठ पर सहमति, बस दो पर नहीं। यानि पैसा-पैसा, दान का पैसा, खर्च की पावर, कार्य की अनुमति पर हम एक नहीं हो पा रहें, (यह अपुष्ट सूत्र बताते हैं)। हम भाई-भाई हैं, गले मिलिए, भगवान हम सबके हैं, चाहे आप दिगम्बर रूप में पूजो, चाहे उनको श्रृंगारित रूप में। लक्ष्य एक ही है, श्री आदिनाथ से महावीर स्वामी का गुणगान, और उनके बताये मार्ग पर चलकर, अपना ही नहीं, जगत का कल्याण करें। प्रेम, अहिंसा, शाकाहार, अनेकांतवाद को अपनायें, फैलायें।
चैनल महालक्षी और सांध्य महालक्ष्मी परिवार विनय पूर्वक अनुरोध करता है कि अदालत में वकीलों को खड़े होने के लिए 8 करोड़ देने की बजाय, तीर्थों की सुरक्षा व संवर्धन में यह पैसा लगेगा, तो अधिक पुण्यशाली व कल्याणकारी होगा।
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