शिखरजी : तलहटी में ये क्यों प्रदर्शन, संतो के प्रति अपशब्द

0
1733

14 मार्च 2025 /फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी/चैनल महालक्ष्मीऔर सांध्य महालक्ष्मी/
मधुबन। झारखंड में संयम का दिन रहा 12 मार्च। जगह-जगह ….बोर्ड लगाये, शिखरजी में तो 10 दिन पहले से ही, जगह-जगह प्रदर्शन तथा आज भी तलहटी में शांति मार्च निकाला अपने पारंपरिक हथियारों से, ऊपर पहाड़ तक गये और वापस लौट आये। इस मार्च में उन्होंने जैनों के प्रति कोई विरोध शब्द नहीं बोला, परंतु परोक्ष रूप से उनका यही कहना था कि अपनी टोकों आदि को हटाओ। एक दिन पहले शाम को घोषणायें की गई, तलहटी में कल कोई यात्री बाहर नहीं निकले, कोई साधु भी धर्मशाला से बाहर न निकले। ऐसी घोषणाओं की बात वहां के जिम्मेदार व्यक्तियों ने चैनल महालक्ष्मी को बताई, क्योंकि उस समय चैनल महालक्ष्मी टीम अहिच्छेत्र में थी, आचार्य श्री प्रसन्न सागरजी क्लास में।

जहां एक तरफ पारंपरिक हथियारों से तलहटी में आदिवासियों के एक वर्ग ने प्रदर्शन किया , वहीं उनके कुछ नेताओं ने हमारे दिगंबर संतो के प्रति अपशब्द कहने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां तक कहा गया कि अतिक्रमण हटाए, मतलब बात टोंको की थी। इसके अलावा किसी के द्वारा जैनों के प्रति कोई निरादर का भाव नहीं था । पर इस तरह की बातें शिखर जी में बार-बार क्यों कही जाती है?
सवाल आया कि स्थानीय समाज क्या करे, वहां की कमेटियां क्या करें, तीर्थक्षेत्र कमेटी क्या करे? शोर मचाये, प्रदर्शन करे, लड़ने को खड़ी हो जाये, हाय-हाय करे सरकार की, क्या ऐसे सफलता पा सकेंगे? एक-दूसरे पर कमेटियां, समाज के पदाधिकारी कहते हैं उसकी जिम्मेदारी है, हम क्या करें। हम एक नहीं है, एकता खण्ड-खण्ड है, तो क्या ऐसे कोई सफलता की आशा की जा सकती है?

एक बड़ी कमेटी के प्रमुख ने यहां तक कहा कि वहां से क्या कहते हो, यहां आकर देखो, हमारा है ही क्या? क्या यह किसी समस्या का हल है? क्या हर जंग सीमा पर ही लड़ी जाती है, क्या चुप्पी समाधान है? शिखरजी जैनों का सबसे बड़ा शाश्वत तीर्थ है। अयोध्या राम जी के नाम हो गया, और शिखरजी किसी और के नाम हो जाये, बस अपने अनादि निधन, सबसे प्राचीन शाश्वत तीर्थ के लिये सबसे ज्यादा सम्पन्नता की बात करने वालें, मौहल्लों के जिनालयों तक सीमित रह जायेंगे क्या और उनकी भी क्या गारंटी है? कल कोई उनको भी हड़पना चाहेंगे। क्या हमारे पूर्वजों को इन खतरों से नहीं गुजरना पड़ा। ये तो कुछ नहीं, जो 7वीं-8वीं से 11वीं सदी, फिर 14वीं सदी से 16वीं सदी में हुआ, वह तो भयावह था। पर खड़े रहे वो, संस्कृति को बचाने के लिये।

वैसे अभी इस लड़ाई में 17 मार्च को झारखंड हाईकोर्ट को सुनवाई जारी रखनी है। पर क्या हम इतने कमजोर हो गये? जोर से बोला, कुछ हजार इकट्ठे हुये, किसी ने हथियार दिखाये, तो क्या मैदान छोड़ देंगे? कहीं न कहीं हमारे भीतर की ऊर्जा खत्म हो रही है, जो आजादी के दीवानों में थी। कहा था न ‘सर फिरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुओं कातिल में है।’ नहीं – नहीं, लड़ना नहीं है, दिल जीतना है।

हर चीज लड़कर हासिल नहीं की जाती, पर यूं ही अपनी विरासत छोड़ी भी नहीं जाती। अटल होना होगा, अगर कमजोर ही रहेंगे तो चीन ने कबका भारत को जेब में रख लिया होता, पर 1962 के बाद सबक सीखा है। लड़े नहीं, पर अपनी ताकत हर मंच पर दिखाई।

हम लड़ने की बात नहीं करते, पर अपनी एकता की, अखण्डता की बात क्यों नहीं करते। घर के बाहर तो एक होकर रहें, आज यही आवश्यकता है। इतना जरूर कि अपने सभी तीर्थों की सुरक्षा के लिये हर वक्त चौकस और तैयार रहिये। हमें कोई र्इंट का जवाब पत्थर से नहीं दना, आज सभी के घर शीशों के होते हैं, बस होशियार रहें, सजग रहें।

आज तो यह है कि जैनों के वकील दूसरों के लिए, उनके तीर्थों के लिये अदालती लड़ाई लड़ सकते हैं, जैन प्रशासनिक अधिकारी दूसरों के लिये सुगमता के दरवाजे खोल सकते हैं, बड़े-बड़े जैन उद्योगपति दूसरों के लिये खजाने खोल सकते हैं, दूसरी जगह पर सर झुका सकते हैं, पर वे सब जैन संस्कृति, विरासत, धर्म के लिये नहीं खड़े दिखते। खाली प्रदर्शन, शोर शराबा से कुछ हासिल नहीं होने वाला। काम दिमाग से करें, हर कदम मिलकर बढ़ायें, आवाज एक हो, शिखरजी के लिए सारे भेदों को समाप्त कर जुट जायें, क्योंकि यह चुप रहने का भी वक्त नहीं, देखते रहने के लिये समय नहीं। हर किसी को हर विधा का, हर मंच का, हर रास्ते का सदुपयोग दिमाग से करना होगा, विश्वास जीतना होगा, क्योंकि समय विरोधियों को पैदा करना नहीं, प्रेम से दोस्तों को जोड़ना है।

इस पर पूरी जानकारी चैनल महालक्ष्मी के एपिसोड नं. 3213 में देख सकते हैं।

चैनल महालक्ष्मी चिंतन : 8वीं सदी, 14वीं सदी, 16वीं सदी में जैन समाज ने किस तरह अपने को संभाला, जैन संस्कृति को बचाने की हर कोशिश की, पर अब 21वीं सदी में चूक क्यों रहे हैं? इस स्वतंत्र भारत में हमारी कमजोरियां उजागर हो रही हैं। अपने सामर्थ्य और शक्ति को भुला चुके हैं। आज घरों की चिंता करने वाले, तीर्थों के प्रति अपनी जिम्मेदारी के प्रति लापरवाह तो नहीं हो गये?