17 मार्च/फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी /चैनल महालक्ष्मीऔर सांध्य महालक्ष्मी/
निपाणी संकेश्वर के समीप ‘‘यरनाळ’’ ग्राम में पंचकल्याणक महोत्सव के लिए मुनिराज श्री देवेन्द्रकीर्तिजी पधारे थे। ऐलक सातगौंडा महाराज भी वहाँ पहुँचे। उन्होंने गुरु श्रीदेवेन्द्रकीर्ति स्वामी को दिगम्बर दीक्षा देने के लिए पुन: प्रार्थना की। एकत्रित जैन समाज को महाराजजी की योग्यता का पूरा परिचय था। वे महाराजजी से प्रभावित भी थे। मुनि दीक्षा के लिए समाजभर ने एक स्वर से अनुमोदना की।
निग्र्रंथ दीक्षा लेने का विचार निश्चित हुआ। दीक्षाकल्याणक के दिन तीर्थंकर भगवान का वन विहार का जुलूस दीक्षा वन में आया। इसी पवित्र समय में ऐलकजी ने भी दीक्षागुरु श्री देवेन्द्रकीर्ति महाराज के पास दिगम्बरी जिनदीक्षा धारण की। ‘नैग्र्रंथ्यं हि तपोऽन्यत्तु संसारस्यैव साधनम्’ यह दृढ़ धारणा थी। भगवान की दीक्षा विधि के साथ ऐलक महाराजजी की भी निग्रंथ दीक्षा विधि सम्पन्न हुई, केशलोंच समारम्भ भी हुआ। ऐलक सातगौंडा मुनि हो गये, यथाजातरूपधारी हुए। मुनि पद का नाम श्री ‘‘शांतिसागर’’ रखा गया। शक् सम्वत् १८४१ फाल्गुन शुक्ला १४ उनकी दीक्षामिति थी। इस पवित्र दिन से महाराज श्री का जीवनरथ अब संयम के राजमार्ग द्वारा मोक्षमहल की ओर अपनी विशिष्ट गति से सदा गतिशील ही रहा। अंतरंग में परिग्रहों से अलिप्तता का भाव सदा के लिए बना रहना और बाह्य में परिग्रह मात्र से स्वयं को दूर रखना यह मुनि की अलौकिक चर्या है। शुद्ध आत्मस्वरूप मग्नता यह उसका अन्तःस्वरूप होता है। देह के प्रति भी ममत्व का लेश नहीं होता, वे विदेही भावों के राजा होते हैं इसीलिए लोग उन्हें महाराज कहते हैं।
पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियों के विषयों पर विजय, छह आवश्यक तथा सात शेष गुण इत्यादि २८ मूलगुणों के ये धारक होते हैं।
आचार्यश्री की रत्नत्रय साधना अत्यन्त कठोर थी। वे शरीर को पूर्णरूपेण परद्रव्य समझकर उसे कभी-कभी ही आहार प्रदान करते थे। ३५ वर्ष के दीक्षित जीवन में आचार्यश्री ने २५ वर्ष से भी अधिक दिन उपवास में निकाले हैं जिनकी सूची निम्न प्रकार है-
उपवासों की संख्या कितनी बार उपवास के कुल दिन
१) १६ दिन का ३ बार ४८
२) १० दिन का १ बार १०
३) ९ दिन का ६ बार ५४
४) ८ दिन का ७ बार ५६
५) ७ दिन का ६ बार ४२
६) ६ दिन का ६ बार ३६
७) ५ दिन का ६ बार ३०
८) ४ दिन का ६ बार २४
९) अंतिम ३६ दिन तक के उपवास में स्वर्गवास ३६
योग-३३६ दिन
नामव्रत उपवासों की संख्या
१. चारित्र शुद्धि व्रत १२३४
२. तीस चौबीसी व्रत ७२०
३. कर्मदहन व्रत (तीन बार) ४६८
४. सिंहनिष्क्रीड़ित व्रत (तीन बार) २७०
५. सोलहकारण व्रत (१६/१६) २५६
६. श्रुतपंचमी व्रत ३६
७. विहरमाण व्रत (२० तीर्थंकर व्रत) २०
८. दशलक्षण पर्व १०
९. सिद्धों के व्रत (८) ८
१०. अष्टाह्निका व्रत ८
११. गणधरों के व्रत २००
गणधरों के १४५२ उपवास होते हैं।
आचार्य श्री २०० ही कर पाये थे।
१२. अतिरिक्त व्रत ६३७२
आचार्यश्री ने सन् १९२० में निर्ग्रन्थ मुनि दीक्षा ली। इस समय से लेकर १९५५ तक के ३५ वर्षों में महाराज ने ६३३८ दिन उपवास किया। इसका अर्थ यह है कि ३६ वर्ष के मुनि जीवन के २५ वर्ष ७ मास अनशन में बीते। महाराज इतने दिन निराहार रहे। क्या इस कठोर उग्र तपस्या में आचार्यश्री की कोई बराबरी कर सकता है? नहीं। यह तो उनकी विशिष्ट आत्मशक्ति का प्रतीक है।