10 सितम्बर 2022/ भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
हर वर्ष की तरह इस बार भी 11 सितम्बर को मनेगी। क्षमावाणी, कहीं 18 को मनेगी, तो कहीं किसी और सुविधानुसार तिथि। कहीं मंदिर-मंंदिर बनेगी, तो कहीं बाहर मंच लगाकर, शायद अपनी ताकत दिखाने के लिये, वो मेल-मिलाप मंच से उतरते ही सबके मन से हृदय से निकल जाता है। अगर ऐसा नहीं होता, तो अगली बार का इंतजार नहीं करना पड़ता, हर जगह एक दिखते।
हां, हम कह रहे हैं कि सरकार एक क्षमावाणी डे,(Forgiveness Day) घोषित करने की बात तो करती है, पर निश्चित तिथि पर एक साथ मना नहीं सकते। हमारी एक तिथि नहीं, और सरकार से कहते हैं एक तिथि। इसी तरह श्री महावीर स्वामी जन्म कल्याणक, कई दिनों में की बार मनाया जाता है। छोटा-सा समाज, पर तिथियां अलग-अलग।
क्या खूब है, वैसे भी हाथी के दांत खाने के कुछ, और दिखाने के और होते हैं और कभी ध्यान दिया है, दिखाने के कुछ जरूरत से ज्यादा ही बड़े होते हैं, इसलिये उनका शिकार भी होता है, दिखाने वाले दांतों को हड़पने के लिये। ऐसा ही हमारे समाज में है, दिखावा और दिखावा, इसीलिये हमारी विरासत संस्कृति लुटती रही है और आज भी जारी है। हमें विद्वान और संत समझाते, पढ़ाते, बताते भी हैं कि दस दिन अपने पर्व मना लिया अब उसके एक दिन छोड़कर अपने शत्रु-बैरी से क्षमा मांग लो। कोई क्षमा मांगने वाले को, कोई क्षमा देने वाले को बड़ा बताते हैं।
‘मिच्छामि दुक्कड़म’ मुझे क्षमा कर दें तक सीमित रह गये हैं और यह बोलना केवल संतों के मुख से रह गया है-
खम्मामि सव्वजीवाणं, सव्वे जीवा खमंतु मे।
मेत्रि में सव्वभूदेसु, वेरं मज्झणं केण वि।।
मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूं और सब जीव मुझे क्षमा करें, सबसे मैत्री रहे किसी से शत्रुता ना रहे।
हां, तो शीर्षक पर वापस लौटते हैं। ‘फिर क्षमावाणी मनेगी, पर क्षमावणि नहीं’ कुछ के लिये यह शीर्षक ही कन्फयूजिंग है। मात्रा का घट-बढ़ करने से अंतर थोड़े ही पड़ता है। पहले बता दें, ‘क्षमावाणि’ शब्द सांध्य महालक्ष्मी ने भी लगभग 15-16 साल पहले पढ़ा, वो नवभारत टाइम्स में जब क्षमावणि विशेषांक आया। तब उसमें 8-10 पेज का क्षमावणि विशेषांक आता था अब तो जैनों का ही अखबार बस नाम के लिये रह गया है।
फिर उनके रिपोर्टर से पूछा तो उसने बताया कि यह आचार्य श्री विद्यानंद जी ने सुधार कराया है। बस सांध्य महालक्ष्मी टीम आचार्य श्री के पास पहुंची थी, उन्होंने गंभीरता से बताया जिसे अब धर्म चर्चा में आचार्य श्री श्रुतसागर जी (कृष्णानगर) में व आचार्य श्री प्रज्ञा सागर जी (उज्जैन) में दोहराया सांध्य महालक्ष्मी को। ‘क्षमावाणी’ यानि मुख से वचन द्वारा दूसरे से क्षमा मांगना, क्षमा करना। पर इसमें जरूरी नहीं कि आपका मन क्षमा करने या मांगने को कर रहा हो, केवल शब्दों के पिरोेने से क्षमा पूर्ण नहीं हो जाती। जैसे माफी, सॉरी शब्द टेम्परेरी और क्षमा परमानेंट रूप में स्वीकारे जाते हैं, उसी तरह जब मन-वचन-काय को एक करके क्षमा होती है तो वह ‘क्षमा वाणी’ से ‘क्षमावणि’ का रूप ले लेती है।
अब प्रश्न यह है कि क्या क्षमा को क्षमावाणि के रूप में स्वीकार किया हम सबने? शायद आज तक नहीं। अगर किया होता तो जैन समाज एक हो गया होता। जब दूसरे में गलती नहीं दिखती, तो भेदभाव नहीं रहता। अंदर कुछ बाहर कुछ। तभी तो बगुले से ज्यादा कॉक को बेहतर कहा गया।
आज समय की पुकार है कि ‘क्षमावणि’ को सार्थक करें। उसके लिये पहले अपनी संकीर्ण सोच की आहूति देनी होगी। ‘सामूहिक क्षमावणि’ मनायें तो अपने मान की, सम्मान की लोकप्रियता की प्रमुखता के दिखावे के रूप में ना हो, मन-वचन-काय के योग से हो, दिल मिल जाये, भेद मिट जाये, बस यही भावना भायें और दिल से ‘क्षमावाणि’ मनायें।
– शरद जैन –
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यह पूरा लेख तथा और भी अनेक चिंतन हेतु लेख 36 पृष्ठीय सांध्य महालक्ष्मी के कलरफुल क्षमावाणी अंक 2022 में पढ़िए
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